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कैसे अपने प्राण से घृणा करें

मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है, परन्तु यदि मर जाता है तो बहुत फल लाता है। जो अपने प्राण को प्रिय जानता है वह उसे खो देता है, और जो अपने प्राण को इस जगत में अप्रिय जानता है वह उसे अनन्त जीवन तक बचाए रखेगा। (यूहन्ना 12:24-25)

“जो अपने प्राण को इस जगत में अप्रिय जानता है वह उसे अनन्त जीवन तक बचाए रखेगा।” इसका क्या अर्थ है?

इसका अर्थ, कम से कम, यह है कि आप इस जगत में अपने जीवन के विषय में अधिक नहीं सोचते हैं। दूसरे शब्दों में, इस से अधिक अन्तर नहीं पड़ता है कि इस जगत में आपके जीवन के साथ क्या होता है।

यदि मनुष्य आपके विषय में अच्छा बोलें, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि वे आपसे घृणा करते हैं, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि आपके पास बहुत वस्तुएँ हैं, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि आपके पास कम वस्तुएँ हैं, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि आप सताए जाते हैं या आपके विषय में झूठ बोला जाता है, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि आप प्रसिद्ध हैं या चाहे अज्ञात हैं, तो इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।

यदि आप ख्रीष्ट के साथ मर चुके हैं, तो इन सब बातों से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता है।

परन्तु यीशु के शब्द इससे भी अधिक क्रान्तिकारी हैं। यीशु हमें केवल ऐसे अनुभवों को सहने के लिए नहीं बुला रहा है जिन्हें हम नहीं चुनते हैं, परन्तु उसके पीछे चलने का चुनाव करने के लिए बुला रहा है। “यदि कोई मेरी सेवा करना चाहे तो मेरे पीछे चले” (यूहन्ना 12:26) कहाँ जाने के लिए? वह गतसमनी की ओर और क्रूस की दिशा में बढ़ रहा है।

यीशु केवल यह नहीं कह रहा है: यदि तुम्हारे साथ बुरा होता है, तो मत डरो, क्योंकि तुम वैसे भी मेरे साथ मर चुके हो। वह कह रहा है: जिस रीति से मैंने क्रूस को चुना है, तुम भी मेरे साथ मरने को चुनो । इस जगत में अपने जीवन से घृणा करने को चुनों

यीशु का यही अर्थ था जब उसने कहा, “यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इनकार करे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे चले” (मत्ती 16:24)। वह हमें क्रूस को चुनने के लिए कहता है। लोग क्रूस पर एक ही कार्य करते थे। वे मरते थे। “अपना क्रूस उठाने” का अर्थ है, “गेहूँ के दाने के जैसे, भूमि पर गिर कर मरना।” इस बात को चुनिए।

परन्तु क्यों? सेवा के प्रति क्रान्तिकारी समर्पण के लिए: “मैं अपने प्राण को किसी प्रकार भी अपने लिए प्रिय नहीं समझता, यदि समझता हूँ तो केवल इसलिए कि अपनी दौड़ को और उस सेवा को जो मुझे प्रभु यीशु से मिली है पूर्ण करूँ, अर्थात् मैं परमेश्वर के अनुग्रह के सुसमाचार की गम्भीरता-पूर्वक साक्षी दूँ” (प्रेरितों के काम 20:24)। मैं सोचता हूँ कि मैं पौलुस को यह कहते हुए सुनता हूँ, “इससे अधिक अन्तर नहीं पड़ता है कि मेरे साथ क्या होता है — यदि मैं मात्र परमेश्वर के अनुग्रह की महिमा के लिए जी सकूँ।”

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जॉन पाइपर
जॉन पाइपर

जॉन पाइपर (@जॉन पाइपर) desiringGod.org के संस्थापक और शिक्षक हैं और बेथलेहम कॉलेज और सेमिनरी के चाँसलर हैं। 33 वर्षों तक, उन्होंने बेथलहम बैपटिस्ट चर्च, मिनियापोलिस, मिनेसोटा में एक पास्टर के रूप में सेवा की। वह 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं, जिसमें डिज़ायरिंग गॉड: मेडिटेशन ऑफ ए क्रिश्चियन हेडोनिस्ट और हाल ही में प्रोविडेन्स सम्मिलित हैं।

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