कोई भी वास्तव में अपने हृदय की नहीं सुनता है। मुझे पता है कि यह बात सुनने में विचित्र प्रतीत होती है, क्योंकि हमारी संस्कृति में यह कहावत प्रबल है कि “अपने हृदय की सुनो”। परन्तु यदि हम ध्यान से विचार करें कि “हृदय” वास्तव में क्या है और यह कैसे कार्य करता है, तो हम देखेंगे कि इस कहावत का कोई अर्थ नहीं है, तथा क्यों यह अंततः लोगों को भ्रमित और पथ भ्रष्ट करती है।
कुछ वर्ष पहले, मैंने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था, “डोन्ट फॉलो योर हार्ट” (अपने हृदय का अनुसरण मत करो) जिसमें मैंने यह तर्क दिया कि हृदय की विकृतिपूर्ण स्वार्थी नीति को देखते हुए, यह ऐसा अगुवा नहीं है जिसका हम अनुसरण करना चाहते हैं।
कुछ पाठकों ने आपत्ति जताते हुए कहा कि ख्रीष्टियों के रूप में हमारे पत्थर के हृदयों को माँस के नए हृदयों से परिवर्तित कर दिया गया है (यहेजकेल 36:26), और इसलिए अनुसरण करने हेतु यह भरोसेमंद है। मैं इस विचार को समझता हूँ, परन्तु इसे अपरिपक्व मानता हूँ। रोमियों 7 (और नए नियम के अधिकाँश स्थल) इस बात की साक्षी देते हैं — और मेरा व्यापक व्यक्तिगत अनुभव और अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि— एक सक्रिय, कपटपूर्ण पाप का स्वभाव अभी भी पुनः जन्म पाए व्यक्ति को संक्रमित करता है, जिससे हमें सावधान और सतर्क रहने की आवश्यकता होती है।
परन्तु इस बात को और भी अधिक स्पष्ट रीति से समझने के लिए, मैं अपने तर्क को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए कहूँगा कि, कोई भी अपने हृदय का अनुसरण नहीं करता है। क्योंकि परमेश्वर ने उस रीति से कार्य करने के लिए हृदय को बनाया ही नहीं है।
“हृदय” क्या है?
जब लोग कहते हैं कि, “अपने हृदय का अनुसरण करो” तो इसके पीछे उनका क्या अर्थ है? मुझे सन्देह है कि अधिकाँश लोगों ने इसके विषय में सावधानी से सोचा होगा। जबकि यह जानना सदैव बुद्धिमानी की बात होगी कि किसी व्यक्ति का अगुवा कौन है, इससे पहले कि हम यह तय करें कि इस अगुवे का अनुसरण करना बुद्धिमानी भरी और सुरक्षित बात है या नहीं, हमें अवश्य ही पूछना चाहिए कि यह अमूर्त वस्तु क्या है जिसे हम “हृदय” कहते हैं?
क्या आपने कभी संक्षेप में उस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है? यह पहली बार में प्रकट रूप से स्पष्ट प्रतीत हो सकता है — जब तक कि आप इस बात को परखते और अनुभव नहीं करते हैं कि यह विषय आपकी सोच से अधिक गहरा और जटिल है। यह मेरा प्रयास है: हृदय हमारे आन्तरिक अस्तित्व (आत्मा) के लिए बाइबल का रूपक है जो कि हमारे स्नेह का स्रोत है।
स्नेह किसी की ओर या किसी वस्तु के प्रति हमारी दृढ़ इच्छा है। हम इन इच्छाओं को “प्रेम करना” या “घृणा करना” कहते हैं। स्नेह हमारे प्राण (आत्मा) के मापक के समान हैं जो हमें बताते हैं कि हम व्यक्तियों या वस्तुओं को कितना कम या अधिक संजोते हैं।
इसलिए हम यह कह सकते हैं कि हृदय हमारे प्राण का कोषाध्यक्ष है, क्योंकि यीशु ने कहा, “क्योंकि जहाँ तेरा धन है, वहाँ तेरा मन भी होगा” (मत्ती 6:21)। और क्योंकि परमेश्वर अस्तित्व में सर्वोच्च कोष है, हमें उसके प्रति सबसे अधिक स्नेह रखना है—हमें उस से अपने सारे मन से प्रेम करना है (मत्ती 22:37)।
वाक्याँश की शक्ति से सावधान रहें
हमारा हृदय उन्हीं बातों की इच्छा करता है जिन बातों को वह संजोता है। दूसरे शब्दों में, हृदय एक “अभिलाषी” है। इसलिए, जब लोग कहते हैं कि, “अपने हृदय का अनुसरण करो,” तो वास्तव में उनके कहने का अर्थ है कि, “आप जो चाहते हैं, उसका पीछा करो।” परन्तु इस बात को इस रीति से कहना एक प्रत्यक्ष प्रकाश डालता है और हमारी संस्कृति की कहावत से कुछ काल्पनिक, मंगलभाषी धुन्ध को दूर करता है।
शब्द शक्तिशाली होते हैं। वे एक उलझी हुई अनावश्यक वृद्धि को काट सकते हैं और गौरवमयी सत्य या कुटिल झूठ को प्रकट कर सकते हैं। या वे भ्रमित कर सकते हैं और बातों को तोड़-मरोड़ सकते हैं और छल कर सकते हैं। जो बात मैं कहना चाहता हूँ ये वाक्याँश उसके अच्छे उदाहरण हैं “अपने हृदय का अनुसरण करो” और “आप जो चाहते हैं उसका पीछा कीजिए”।
“अपने हृदय का अनुसरण करो” यह वाक्याँश उत्तम, वीर, उत्साही और साहसी सुनाई पड़ता है। और यह नैतिक दायित्व का भार उठाने के समान प्रतीत होता है, मानो कि इसको अस्वीकार करना स्वयं को धोखा देने के समान होगा। यह लगभग पवित्र प्रतीत होता है। यदि कोई अपने हृदय का अनुसरण करने की खोज में है, तो यह प्रश्न करना लगभग उल्लंघन करने जैसा लगता है कि क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए।
परन्तु यह वाक्याँश “आप जो चाहते हैं उसका पीछा करें” अधिक मूर्खतापूर्ण है, और इसमें पाए जाने वाले संकट बड़ी सरल रीति से स्पष्ट हैं। जब हम इस बात को सुनते हैं, तो हम आचरण में सहज रूप से नैतिक अस्पष्टताओं को पहचानते हैं और अपने स्वार्थ के उद्देश्य को जानने के कारण अस्पष्टता का अनुभव करते हैं। हम इस बात पर असहमत हो सकते हैं कि किस चाहत का पीछा किया जाना चाहिए, किन्तु हम सभी इस बात से सहमत होते हैं कि सभी चाहतों का पीछा नहीं किया जाना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि हमारे हृदयों में बहुत अधिक चाहतें हैं जो हमारे हृदय के लिए अच्छी नहीं हैं।
किन्तु इससे भी अधिक, यह वाक्याँश “आप जो चाहते हैं उसका पीछा करें” स्पष्ट करता है कि कौन किसका अनुसरण करता है। इस वाक्याँश में मुख्य शब्द “जो” और “चाहना” है। हमारा “चाहना” “जो” का अनुसरण करता है। यदि हमारा हृदय “अभिलाषी” है, तो वह “जो” चाहता उसका अनुसरण करता है। यदि हमारा हृदय हमारा कोषाध्यक्ष है, तो जिसे वह संजोता है उसी का अनुसरण (या पीछा) करता है। दूसरे शब्दों में, हम अपने कोषाध्यक्ष का अनुसरण नहीं करते हैं; हमारा कोषाध्यक्ष हमें बताता है कि हमें किस कोष का अनुसरण करना चाहिए।
आप कभी भी अपने हृदय का अनुसरण नहीं करते हैं
यही कारण है कि यह वाक्याँश “अपने हृदय का अनुसरण करो” भ्रमित करनेवाला और बहकानेवाला है। यह इस प्रकार कहने के समान है कि अपने अनुयायी का अनुसरण करें, या अपने कोषाध्यक्ष को संजोए, या अपनी अभिलाषा करने वाले को चाहें।
सत्य यह है कि आप वास्तव में कभी भी अपने हृदय का अनुसरण नहीं करते हैं। हृदय आपका वह अंग है जो उन बातों अनुसरण करता है जिन बातों की आप इच्छा करते हैं। यही कारण है कि बाइबल कभी भी आपको अपने हृदय का अनुसरण करने का निर्देश नहीं देती है। बाइबल आपके हृदय को केवल उन कार्यों को करने का निर्देश देती है जिसे करने के लिए परमेश्वर ने उसे बनाया है: सच्चे स्नेह का अनुभव करने के लिए। परमेश्वर आपके हृदय से कहता है कि जो वास्तव में मूल्यवान है उसे संजोए रखें (मत्ती 13:44), उचित कारणों से जो सही है उससे प्रेम करें (मत्ती 22:37-39), जो सत्य है उस पर भरोसा रखें (नीतिवचन 3:5-6), और जो बुरा है उससे घृणा करें (भजन 97:10)।
“परमेश्वर नहीं चाहता है कि हमारी आँखे हमारे हृदय पर लगी रहें, क्योंकि हृदय इसलिए नहीं बनाए गए हैं कि उनका अनुसरण किया जाए। हृदय अगुवाई करने और दिशा प्रदान करने के लिए बनाए गए हैं।”
आप जिसका अनुसरण करते हैं — जिसे आप प्राप्त करना चाहते हैं — वह ऐसी वस्तु है जो आपके हृदय के स्नेह को उत्तेजित करती है। यह प्रोत्साहन “अपने हृदय का अनुसरण न करें” दोहराया जा रहा है, क्योंकि मेरा मानना है कि शत्रु सत्य को अस्पष्ट करने और लोगों को छल में डालने के लिए संस्कृति की इस कहावत “अपने हृदय का अनुसरण करो” का उपयोग करता है।
यह विचार “अपने हृदय का अनुसरण करो” उत्तम नहीं है। यह सुनने में शक्तिशाली प्रतीत होता है, फिर भी अस्पष्ट, प्रभाववाद सम्बन्धी विचार है जो सत्य के इतना निकट होते हुए प्रतीत होता है कि यदि हम सावधान नहीं हैं, तो हम इसे केवल नाम मात्र के मूल्य पर स्वीकार करेंगे। और फिर यह एक ऐसा मूल्य बन जाता है जो यह बताता है कि हम अपने निर्णय कैसे लें और यह हमें सब प्रकार के स्वार्थी और विनाशकारी मार्गों में ले जाता है, इसके साथ ही हमें यह बताते हुए कि हम निष्कपट रूप से और उदारता के साथ बस स्वयं के प्रति सच्चे हैं। यदि शैतान हमारी दृष्टि को उस बात पर लगाने में सफल हो पाए जिन्हें हम अपने हृदय के सपनों के रूप में देखते हैं, तो वह जानता है कि वह हमें सच्चे कोष के प्रति भी अन्धा बनाए रख सकता है।
परमेश्वर नहीं चाहता है कि हमारी आँखें हमारे हृदय पर लगी रहें, क्योंकि हृदय अनुसरण करने के लिए नहीं बनाए गए हैं। हृदय अगुवाई करने और दिशा प्रदान करने के लिए बनाए गए हैं (2 थिस्सलुनीकियों 3:5)। परमेश्वर चाहता है कि हमारे हृदय की आँखें वास्तविक कोष को देखने और इसका पीछा करने हेतु ज्योतिर्मय हों (इफिसियों 1:18)। यही कारण है कि वह हमें हमारे विश्वास के कर्ता, और हमारे सिद्ध करने वाले यीशु की ओर दृष्टि लगाने को कहता है (इब्रानियों 12:2)। परमेश्वर नहीं चाहता कि हम त्रुटिपूर्वक भी यह सोचें कि हम अपने हृदय का अनुसरण करते हैं; वह चाहता है कि हम इस बात को जानें कि हम यीशु का अनुसरण करते हैं।