“मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखेबाज़ होता है,… उसे कौन समझ सकता है”- (यिर्मयाह 17:9), इसलिए “अपने हृदय की चौकसी पूरे यत्न के साथ कर, क्योंकि जीवन का मूल-स्रोत वही है”- (नीतिवचन 4:23)।
प्रायः आपने ऐसी बातों को सुना होगा कि “अपने मन की सुनो”, “मन तो चंचल है” या फिर कभी-कभी असमन्जस्य होता है कि हम “अपने दिल की सुनें या दिमाग की सुनें”। टेड ट्रिप अपनी पुस्तक शेफर्डिंग ए चाइल्ड्स हार्ट में कहते हैं कि “एक व्यक्ति का जीवन उसके हृदय का प्रतिबिम्ब होता है”। हमारे जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप हमारे हृदय की इच्छाओं, भावनाओं, विचारों और अभिलाषाओं के द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। हम प्रायः अपने मन की सन्तुष्टि व आनन्द के लिए उचित या अनुचित कार्य करते हैं। कभी कभी हम निर्णय ही नहीं कर पाते हैं कि हम अपने मन के अनुसार चलें या न चलें। आइए हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देखें कि हमें अपने मन के अनुसार चलना चाहिए या नहीं।
मन क्या है
मन के विषय में, हम सामान्यरूप से सोचते हैं कि यह हमारे मस्तिष्क की एक क्षमता है जो हमें सोचने, समझने, स्मरण करने, निर्णय व व्यवहार करने जैसे कार्यों के लिए सक्षम करती है। इसे सचेतन और अवचेतन मन के रूप में भी बाँटा जाता है। लेकिन जब हम बाइबल में मन के बारे में पढ़ते हैं तो यह मस्तिष्क के स्थान पर हृदय की बात करती है। यह कहती है कि मन या हृदय मानव जीवन का केन्द्र है। बाइबल के अनुसार सभी बौद्धिक गतिविधियाँ हृदय के अनुसार होती हैं और उसी में बुद्धि का वास है। मन के द्वारा ही सोचना, समझना, सुख और दुःख की भावनाओं को महसूस करना तथा अभिलाषाओं द्वारा प्रेरित चुनावों का किया जाना होता है (2 शमूएल 7:3)1। तो फिर प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें अपने मन के अनुसार चलना चाहिए या नहीं, और क्यों?
अपने मन की स्थिति को जानें
मन के अनुसार चलने पर विचार करने के लिए सबसे पहले हमें मन की वास्तविक स्थिति को समझना आवश्यक है। पाप ने हमारे भीतरी मनुष्यत्व तथा बाहरी कार्य दोनों को प्रभावित किया है, जिसके कारण हमारे निर्बुद्धि मन अन्धकारमय हो गए हैं। दाऊद भजन 51:5 में कहता है कि “मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा”। इसीलिए हमारे मन बुराई करने में पूर्णतः लिप्त रहते हैं, क्योंकि “बचपन से मनुष्य के मन में जो कुछ उत्पन्न होता है वह बुरा ही होता है” (सभोपदेश 8:11, उत्पत्ति 8:21)। आपने देखा कि पाप के कारण हमारे मन की स्थिति कितनी दयनीय है। इसलिए हमें अपने मन के अनुसार नहीं चलना चाहिए, क्योंकि मन तो सब वस्तुओंं से अधिक धोखेबाज़ है और उसमें असाध्य रोग लगा है (यिर्मयाह 17:9)।
मन के धोखे को समझें
मन के धोखे को समझने से पहले यह जान लें कि “शारीरिक मन तो परमेश्वर से शत्रुता करता है। वह न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है और ही हो सकता है” (रोमियों 8:7)। इसलिए जब आप कोई कार्य करते हैं तो सोचिए कि यदि आपके स्थान पर यीशु होता तो क्या वह यही करता जो आप कर रहें हैं। जब कभी आप कोई निर्णय लें तो यह ध्यान दें कि क्या यह परमेश्वर के वचन के अनुसार है? क्या आप अपने ऊपर घमण्ड करके स्वार्थी जीवन जीते हैं? क्या आपका मन सच्चाई को छिपाकर झूठ को प्रस्तुत करना पसन्द करता है? क्या आपके मन में दूसरों के प्रति ईर्ष्या और पक्षपात की भावना रहती है? क्या आप परमेश्वर पर भरोसा रखने के स्थान पर अपनी समझ का सहारा लेते हैं? क्या आप परमेश्वर की व्यवस्था के स्थान पर संसार के पैमाने से अपना मूल्यांकन करते हैं? क्या आपको आत्मा के कामों से अधिक शरीर के काम अच्छे लगते हैं (गलातियों 5:19-23)? यदि आपका मन ऐसे कार्यों के लिए आपको प्रेरित करता है तो वह आपको धोखा दे रहा है।
मन के धोखे से बचें
मन के धोखे से बचने के लिए आप अपनी जीवनशैली पर विचार कीजिए, कि वे कौन से क्षेत्र हैं जिनमें आप परमेश्वर से अधिक अपने मन की सुनना पसन्द करते हैं। इसके साथ ही ध्यान दें कि कब, कहाँ और कैसे वे गतिविधियाँ आपको धोखा देती हैं? हो सकता है जब आप मित्रों के साथ होते हैं तो आपको मन के अनुसार चलना अच्छा लगता हो। हो सकता है आप मोबाइल या कम्प्यूटर चलाते समय मन के प्रलोभनों में फँस जाते हों। हो सकता है आप एकांत में अपने मन की इच्छाओं को पूरा करते हों। आप अपने मन की इच्छाओं को परमेश्वर के वचन से जांचे। आप स्वयं को मन के धोखे से बचाने के लिए तैयार करें, चाहे इसके लिए आपको कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और अपने प्राण खोए तो उसे क्या लाभ (मत्ती 16:26)? आप परमेश्वर से नियमित प्रार्थना करें कि वह आपको एक नया हृदय दे जिससे कि आप मन की अनर्थ रीति पर चलने से बच सकें। क्योंकि हृदय से बुरे बुरे विचार, हत्याएँ, परस्त्रीगमन, व्यभिचार, चोरियां, झूठी साक्षी और निन्दा निकलती है (मत्ती 15:19)। और इन्हीं के कारण परमेश्वर का प्रकोप आएगा।
निष्कर्ष
मेरे प्रियो, क्या आप अपने मन की आवाज़ को सुनना पसन्द करते हैं? क्योंकि संसार निरन्तर हमसे यही कहता है कि अपने मन की सुनो! फिल्म, मीडिया, समाचार पत्र, अनेक पुस्तकों तथा हमारे मित्रों व सम्बन्धियों की आवाज़ हमसे कहती है कि ‘अपने मन की सुनो और वही करो जो तुम्हें अच्छा लगता है’। और हम संसार की आवाज़ सुनने तथा अपने मन की इच्छाओं को पूरा करने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि परमेश्वर ने हमें अन्धकार के साम्राज्य से छुड़ा कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में प्रवेश कराया है (कुलुस्सियों 1:13)। इसलिए हम अपने मन की अनर्थ रीति पर न चलें, परन्तु अपने आत्मा के चरवाहे प्रभु यीशु की आवाज़ सुनें। क्योंकि यीशु की भेंड़े अपने मन की नहीं परन्तु अपने चरवाहे की आवाज़ को सुनती हैं (यूहन्ना 10:27)।