“यहोवा” नाम के 10 महत्व
“तब परमेश्वर ने मूसा से यह भी कहा, ‘तू इस्राएलियों से इस प्रकार कहना: ‘तुम्हारे पूर्वजों के परमेश्वर अर्थात् अब्राहम के परमेश्वर, इसहाक के परमेश्वर, और याकूब के परमेश्वर यहोवा ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।’ अनन्तकाल के लिए यही मेरा नाम है और मुझे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी नाम से स्मरण किया जाता रहेगा।” (निर्गमन 3:15)
परमेश्वर का नाम अंग्रेज़ी की बाइबल में लगभग सदैव बड़े अक्षरों में LORD (प्रभु) अनुवाद किया जाता है। किन्तु इब्रानी भाषा में इसका उच्चारण कुछ इस प्रकार से होगा “याहवेह” (Yahweh) और इसको “मैं हूँ” के लिए जो शब्द है उस पर निर्मित किया गया है।
अतः हर बार जब हम याहवेह शब्द सुनते हैं या जितनी बार आप हिन्दी बाइबल में यहोवा शब्द देखते हैं, तो आपको सोचना चाहिए कि: यह (पतरस या यूहन्ना के समान) एक विशिष्ट नाम है जिसे “मैं हूँ” के लिए उपयोग किए गए शब्द से निर्मित किया गया है और हमें हर बार इस बात को स्मरण दिलाता है कि परमेश्वर निश्चित रूप से है।
याहवेह, “मैं हूँ” नाम परमेश्वर के विषय में लगभग 10 बातें बताता है:
1. उसका कभी भी आरम्भ नहीं हुआ। प्रत्येक बच्चा पूछता है कि “परमेश्वर को किसने बनाया?” और प्रत्येक बुद्धिमान अभिभावक कहता है कि “परमेश्वर को किसी ने नहीं बनाया। परमेश्वर तो है। और सदा से था। और उसका कभी आरम्भ नहीं हुआ।”
2. परमेश्वर का कभी अन्त नहीं होगा। यदि उसका अस्तित्व कभी आरम्भ नहीं हुआ तो उसका अस्तित्व कभी समाप्त भी नहीं होगा, क्योंकि वह स्वयं अस्तित्व है।
3. परमेश्वर ही अन्तिम सत्य है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य सच्चाई नहीं है। उससे इतर कोई सत्य नहीं है जब तक कि वह स्वयं इसको चाहता और बनाता न हो। अनन्तकाल से जो कुछ भी था वही था। कोई अन्तरिक्ष नहीं, कोई विश्व नहीं, न कोई शून्यता। केवल परमेश्वर ही था।
4. परमेश्वर पूर्णतः स्वतन्त्र है अर्थात् वह किसी पर निर्भर नहीं है। वह इस बात के लिए किसी पर निर्भर नहीं है कि कोई उसको अस्तित्व में लाए या उसका समर्थन करे या उसे सम्मति दे अथवा उसे वह बनाए जो वह है।
5. जो कुछ भी परमेश्वर नहीं है वह पूर्णतः परमेश्वर पर निर्भर है। सम्पूर्ण विश्व तो पूर्णतः द्वितीयक है। अर्थात् यह परमेश्वर द्वारा अस्तित्व में आया और परमेश्वर के निर्णय के कारण ही प्रति क्षण बना रहता है।
6. परमेश्वर की तुलना में सम्पूर्ण सृष्टि कुछ भी नहीं है। आश्रित, निर्भर वास्तविकता का परम, स्वतन्त्र वास्तविकता से वही सम्बन्ध है, जो सम्बन्ध छाया का वस्तु से होता है। और जैसे प्रतिध्वनि मेघ गर्जन पर निर्भर करती है। वे सभी बातें जो इस संसार में और इस आकाशगंगाओं में हमें विस्मित करती हैं, वे तो परमेश्वर की तुलना में कुछ भी नहीं हैं।
7. परमेश्वर नित्य बना रहता है। वह कल, आज और युगानुयुग एक समान है। वह उन्नत नहीं किया जा सकता है। वह कुछ बन नहीं रहा है। वह जो है सो है।
8. परमेश्वर सत्य और भलाई तथा सुन्दरता का परम मापदण्ड है। ऐसी कोई नियम-पुस्तिका नहीं है जिसमें से परमेश्वर को देखना पड़े यह जानने के लिए कि क्या उचित है। तथ्यों को स्थापित करने के लिए कोई सूचना-कोश नहीं है। ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इस बात को निर्धारित करे कि क्या सर्वश्रेष्ठ या सुन्दर है। वह स्वयं ही इस बात का मापदण्ड है कि क्या उचित है, क्या सत्य है, क्या सुन्दर है।
9. परमेश्वर वही करता है जो उसे भाता है और यह सदैव उचित और सदैव सुन्दर तथा सदैव सत्य के अनुरूप होता है। वह सभी वास्तविकता जो उससे बाहर है, उसी ने उसको सृजा है और रचा है तथा वही परम सत्य के रूप में उन सब पर शासन करता है। अतः वह हर उस बाधा से पूर्णतः मुक्त है जो उसकी अपनी ईच्छा की सम्मति से उत्पन्न नहीं होती है।
10. परमेश्वर ही विश्व में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे मूल्यवान वास्तविकता तथा व्यक्ति है। वह सम्पूर्ण विश्व सहित अन्य सभी वास्तविकताओं की तुलना में अधिक रुचि लेने और ध्यान देने और प्रशंसा पाने और आनन्द उठाने के योग्य है।



