“मृत्यु की लहरों ने मुझे घेर लिया, विनाश की प्रचण्ड धाराओं ने मुझे घबरा दिया . . . परमेश्वर का मार्ग तो सिद्ध है।” (2 शमूएल 22:5, 31)।
प्राकृतिक आपदा के कारण अपने दस बच्चों को खोने के पश्चात (अय्यूब 1:19), अय्यूब ने कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ने लिया: यहोवा का नाम धन्य हो” (अय्यूब 1:21)। पुस्तक के अन्त में परमेश्वर द्वारा उत्प्रेरित (inspired) लेखक उन घटित घटनाओं के विषय में अय्यूब की उस समझ की पुष्टि करता है। वह कहता है कि अय्यूब के भाइयों और बहनों ने “यहोवा द्वारा उस पर लाई गई सब विपत्तियों के विषय में उसे सहानुभूति दिखाकर सान्त्वना दी” (अय्यूब 42:11)।
हमारे लिए इसके कई महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं — नये वर्ष के आरम्भ में हमारे लिए यहाँ कुछ पाठ — जब हम जगत में और अपने जीवनों में विपत्तियों के विषय में विचार करते हैं — जैसे कि वह घातक प्राकृतिक आपदा जो दिसम्बर 26, 2004 में हिन्द महासागर में घटी थी — जो अब तक अभिलेखित सबसे घातक प्राकृतिक आपदाओं में से एक है, जिसमें 17 लाख लोग निराश्रित हो गए, 5 लाख लोग घायल हुए, और 2.3 लाख से अधिक लोग मारे गए।
पाठ #1 – शैतान परम नहीं है; परमेश्वर है।
अय्यूब के क्लेश में शैतान का हाथ था, परन्तु उसका हाथ निर्णायक नहीं था। अय्यूब को पीड़ित करने के लिए परमेश्वर ने शैतान को अनुमति दी (अय्यूब 1:12; 2:6)। परन्तु अय्यूब और इस पुस्तक का लेखक परमेश्वर को निर्णायक कारण मानते हैं। जब शैतान ने अय्यूब को फोड़ों से पीड़ित किया, अय्यूब ने अपनी पत्नी से कहा, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10), और लेखक इन शैतानी फोड़ों को “यहोवा द्वारा उस पर लाई गई विपत्तियाँ” कहलाता है (अय्यूब 42:11)। तो, शैतान वास्तविक है। शैतान क्लेश लाता है। परन्तु शैतान परम और निर्णायक नहीं है। वह तो मानो एक पट्टे से बँधा हुआ है। वह परमेश्वर की निर्णायक अनुमति से आगे नहीं जाता है।
पाठ #2 – भले ही शैतान 2004 में क्रिसमस के अगले दिन हिन्द महासागर में सुनामी का कारण बना, फिर भी वह 200,000 मृत्युओं का निर्णायक कारण नहीं है; परमेश्वर है।
अय्यूब 38:8 और 11 में परमेश्वर सुनामी पर अधिकार रखने का दावा करता है जब वह अय्यूब से आलंकारिक रीति से पूछता है, “जब सागर मानो गर्भ से फूट निकला, तब किसने द्वार बन्द करके उसे रोक दिया . . . और कहा, ‘तू यहीं तक आएगा, इस से आगे नहीं; तथा यहीं तेरी विशाल लहरें रुक जाएँगी’?” भजन 89:8-9 कहता है, “हे यहोवा . . . समुद्र के उफान पर तेरा ही अधिकार है; जब उसकी तरंगें उठती हैं तो तू ही उन्हें शान्त करता है।” और स्वयं यीशु के पास भी आज वही नियन्त्रण है जिसे उसने एक बार लहरों के घातक चेतावनियों पर दिखाया: “उसने . . . आँधी तथा उठती हुई लहरों को डाँटा और वे थम गईं और शान्ति छा गई” (लूका 8:24)। दूसरे शब्दों में, भले ही शैतान ने भूकम्प को कराया था, फिर भी परमेश्वर लहरों को रोक सकता था। परन्तु उसने ऐसा नहीं किया।
पाठ #3 – इस जगत में विनाशकारी आपदाएँ न्याय और दया को मिला देती हैं।
परमेश्वर के उद्देश्य सरल नहीं हैं। अय्यूब एक ईश्वरभक्त पुरुष था और उसके क्लेश परमेश्वर की ओर से दण्ड नहीं थे (अय्यूब 1:1, 8)। उनका उद्देश्य शुद्धिकरण था, दण्ड नहीं (अय्यूब 42:6)। याकूब 5:11 कहता है, “तुमने अय्यूब के धैर्य के विषय में तो सुना ही है, और प्रभु के व्यवहार के परिणाम को देखा है कि प्रभु अत्यन्त करुणामय और दयालु है।”
परन्तु हम अय्यूब के मरने वाले बच्चों की आत्मिक स्थिति को नहीं जानते हैं। निश्चय ही अय्यूब उनके विषय में चिन्तित था (अय्यूब 1:5)। सम्भवतः परमेश्वर ने न्याय में होकर उनके प्राण लिए हो। हम नहीं जानते हैं।
यदि यह सत्य है, तो वही आपदा अन्ततः अय्यूब के लिए करुणा और उसके बच्चों के लिए न्याय प्रमाणित हुई। यह दोहरा उद्देश्य सभी आपदाओं के विषय में सत्य है। वे न्याय और दया को मिला देती हैं। वे दण्ड और शुद्धिकरण दोनों हैं। क्लेश और यहाँ तक कि मृत्यु भी, एक ही समय में न्याय और दया दोनों हो सकती हैं।
इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण यीशु की मृत्यु है। यह न्याय और दया दोनों थी। यह यीशु पर न्याय था क्योंकि उसने हमारे (उसके अपने नहीं) पाप उठा लिया, और यह हमारे प्रति जो उस पर भरोसा करते हैं दया थी कि उसने हमारा दण्ड सह लिया (गलातियों 3:13; 1 पतरस 2:24) और वह हमारी धार्मिकता बन गया (2 कुरिन्थियों 5:21)।
दूसरा उदाहरण उस शाप और क्लेशों का है जो आदम और हव्वा के पतन के कारण इस पृथ्वी पर आए। जो लोग ख्रीष्ट पर कभी नहीं विश्वास करते हैं उसे न्याय के रूप में अनुभव करते हैं, परन्तु विश्वासी उसे महिमा के लिए तैयारी के रूप में अनुभव करते हैं, जो भले ही पीड़ादायक किन्तु साथ में दयापूर्ण भी हैं। “सृष्टि व्यर्थता के अधीन कर दी गई, परन्तु अपनी ही इच्छा से नहीं, वरन् उसके कारण जिसने उसे अधीन कर दिया, इस आशा में . . .” (रोमियों 8:20)। यह परमेश्वर का अधीन करना है। इसी कारण से सुनामियाँ आती हैं। परन्तु व्यर्थता के लिए यह अधीन किया जाना “आशा में” है।
पाठ #4 – ख्रीष्ट अपने लोगों को जो हृदय देता है वह उन लोगों के प्रति करुणा का अभास करता है जो पीड़ित हैं, भले ही उनका विश्वास जो भी हो।
जब बाइबल कहती है, “रोने वालों के साथ रोओ” (रोमियों 12:15), तो वह आगे यह नहीं जोड़ती है कि, “यदि परमेश्वर उनके रोने का कारण नहीं है।” अय्यूब को सान्त्वना देने वालों के लिए इतनी बातें करने की अपेक्षा रोना अच्छा होता। यह बात तब भी परिवर्तित नहीं होती है जब हमें पता चलता है कि अय्यूब का दुःख अन्ततः परमेश्वर की ओर से है। नहीं, दुःख उठाने वाले लोगों के साथ रोना उचित है। पीड़ा तो पीड़ा होती है, भले ही उसका कारण जो भी हो। हम सब पापी हैं। पीड़ा के कारणों के आधार पर सहानभूति नहीं जताई जाती है, परन्तु वह तो पीड़ित से संगति के कारण जताई जाती है। हम सब उसमें एक साथ हैं।
पाठ #5 – अन्ततः, ख्रीष्ट हमें बुलाता है कि हम उन लोगों पर दया दिखाएँ जो दुःख उठाते हैं, भले ही वे इसके योग्य न हों।
यही दया का अर्थ है — ऐसी सहायता जो अयोग्य व्यक्ति को दी जाती है। “अपने शत्रुओं से प्रेम करो, जो तुमसे घृणा करते हैं उनकी भलाई करो” (लूका 6:27) । ख्रीष्ट ने हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार किया (रोमियों 5:10), वह हमारे लिए तब मरा जब हम शत्रु ही थे। उस सामर्थ्य के द्वारा, और उस उदाहरण के साथ, हम भी वही करते हैं।