बिना कुड़कुड़ाए कैसे दुख उठाएं

मैं ऐसे लोगों के प्रति आकर्षित होता हूँ जो बिना बड़बड़ाए दुख उठाते हैं। विशेष कर जब वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं परन्तु कभी भी न उससे क्रोधित होते हैं और न ही उसकी आलोचना करते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि न बड़बड़ाना संसार में सबसे दुर्लभ गुणों में से एक है। और जब यह परमेश्वर पर उस गहरे विश्वास से जुड़ा होता है — जो हमारी कष्टदायक परिस्थितियों को बदल सकता है, फिर भी नहीं करता है — तो इसमें एक सुन्दर, परमेश्वर पर निर्भर रहने, परमेश्वर को आदर देने वाला गुण पाया जाता है जो इसे और भी अधिक आकर्षक बनाता है। पौलुस इसी प्रकार का था। 

मृत्यु के कगार पर लाया गया

पौलुस उस समय के विषय में बताता है जब उसके विश्वास को इस रीति से परखा गया कि उसे निराशा और मृत्यु के कगार पर ले जाया गया:  

हम ऐसे भारी बोझ से दब गए थे जो हमारे सामर्थ्य से बाहर था, यहां तक कि हम जीवन की आशा भी छोड़ बैठे थे। वास्तव में, हमें ऐसा लगा जैसे कि हम पर मृत्यु–दण्ड की आज्ञा हो चुकी हो, जिससे कि हम अपने आप पर नहीं वरन् परमेश्वर पर भरोसा रखें जो मृतकों को जिला उठाता है। उसी ने हमको मृत्यु के इतने भारी संकट से बचाया, और भविष्य में भी अवश्य बचाएगा। उसी पर हमने आशा रखी है। और वही हमें आगे भी बचाता रहेगा। (2 कुरिन्थियों 1:8–10)। 

यहाँ पर तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात, इसमें दुख उठाने की प्रचण्डता है: “हमें ऐसा लगा जैसे कि हम पर मृत्यु — दण्ड की आज्ञा हो चुकी हो।” दूसरी बात, इस दुख में एक उद्देश्य या योजना है; “जिससे कि हम अपने आप पर नहीं वरन् परमेश्वर पर भरोसा रखें जो मृतकों को जिला उठाता है।” तीसरी बात, यह उद्देश्य परमेश्वर का  उद्देश्य था। यह उद्देश्य शैतान का नहीं हो सकता था, क्योंकि शैतान निश्चित रूप से नहीं चाहता था कि पौलुस परमेश्वर पर भरोसा रखे।

इसलिए, पौलुस ने अपने दुख उठाने के विषय में — चाहे वह कितना भी प्रचण्ड क्यों न हो — जिस सत्य पर विश्वास किया था वह यह था कि अंततः यह परमेश्वर के उद्देश्य के साथ आया था, और उद्देश्य यह था कि पौलुस अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में, विशेष रूप से मृत्यु के निकट आने पर, वह स्वयं पर कम और परमेश्वर पर अधिक भरोसा रखेगा। 

न बड़बड़ाने के लिए एक उपाय

ऐसा प्रतीत होता है, कि इस प्रकार से पौलुस अपने दुख में बड़बड़ाने से बचा रह सकता था। वह जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के नियन्त्रण में है, तथा परमेश्वर के उद्देश्य पूरी तरह से पौलुस की भलाई के लिए थे। पौलुस ने इस सत्य को कई अन्य स्थानों पर भी और स्पष्ट किया है:

हम अपने क्लेशों में भी आनन्दित होते हैं, क्योंकि यह जानते हुए कि क्लेश में धैर्य उत्पन्न होता है, तथा धैर्य से खरा चरित्र, और खरे चरित्र से आशा उत्पन्न होती है; आशा से लज्जा नहीं होती, क्योंकि पवित्र आत्मा जो हमें दिया गया है, उसके द्वारा परमेश्वर का प्रेम हमारे हृदयों में उंडेला गया गया है। (रोमियों 5:3-5)। 

एक बार पुन:, बड़बड़ाने से पौलुस के मुक्त होने का आधार — निश्चय ही, उसके आनन्द  की उपस्थिति — उसका यह भरोसा था कि परमेश्वर पौलुस में कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रहा था: अर्थात उसके अन्दर धीरज तथा परमेश्वर से ओत-प्रोत आशा उत्पन्न कर रहा था।

सांसारिक जीवन के अंत में दुःख उठाना 

परन्तु उस दुःख उठाने के विषय में क्या कहें जो केवल मृत्यु की ओर ले जाता है न कि पृथ्वी के जीवन के नए पड़ाव की ओर नहीं जहां परमेश्वर पर निर्भरता (2कुरिन्थियों 1:9) और खरे चरित्र और आशा (रोमियों 5:4) की वृद्धि की जा सकती है? पौलुस इस प्रश्न से चिरपरिचित था और उसने अपना उत्तर 2 कुरिन्थियों 4:16-18 में दिया:

इसलिए हम साहस नहीं खोते, यद्यपि हमारे बाहरी मनुष्यत्व का क्षय होता जा रहा है, तथापि हमारे आन्तरिक मनुष्यत्व का दिन-प्रतिदिन नवीनीकरण होता जा रहा है। क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश एक ऐसी चिरस्थाई महिमा उत्पन्न कर रहा है जो अतुल्य है। हमारी दृष्टि उन वस्तुओं पर नहीं जो दिखाई देती हैं, पर उन वस्तुओं पर है जो अदृश्य हैं, क्योंकि दिखाई देने वाली वस्तुएँ तो अल्पकालिक हैं, परन्तु अदृश्य वस्तुएँ चिरस्थाई हैं (2 कुरिन्थियों 4:16-18)।

यहाँ पर मुख्य बात यह है कि कष्ट, बीमारी और वृद्धावस्था के माध्यम से शनैः शनैः मानव जीवन क्षीण हो रहा है। दूसरे शब्दों में, इस दुख उठाने के बाद का अगला पड़ाव पृथ्वी पर और अधिक विश्वास और आशा के काल का नहीं है। अगला पड़ाव स्वर्ग है। 

तो, क्या दुख उठाने में हुई वृद्धि का कोई अर्थ है जो मृत्यु के निकट आने के साथ स्पष्ट होता है? कैसे हममें से वे लोग जिनके पास केवल कुछ ही वर्ष शेष हैं अपनी वेदना और पीड़ाओं तथा अग्रसित मृत्यु पर बडबड़ाते नहींं हैं? पौलुस का उत्तर यह है कि इस जीवन के कष्ट — यदि हम उन्हें मसीह पर भरोसा करके धैर्य के साथ सहन करते हैं  — तो वास्तव में वे स्वर्ग में अधिकाई से महिमा उत्पन्न करते हैं। “यह . . . क्लेश हमारे लिए एक चिरस्थाई महिमा उत्पन्न कर रहा है”।

सन्तुष्टि का रहस्य 

इसलिए, यद्यपि पौलुस का जीवन निरन्तर दुख उठाते हुए प्रतीत होता था (2 कुरिन्थियों 11:23-33), कदाचित ही लेशमात्र भी बड़बड़ाना पाया गया हो, और परमेश्वर के विरुद्ध तो कुछ भी नहीं है। वह विनाशकारी त्रुटिपूर्ण शिक्षा और उसके शिक्षकों पर क्रोधित हो सकता था (गलातियों 1; 8-9; 5:12)। और वह अपने दबाव और बोझ को व्यक्त कर सकता था (2 कुरिन्थियों 11:28)। फिर भी, इन सब के मध्य भी उसमें असामान्य सन्तुष्टि थी। 

उसने कहा कि उसने सन्तुष्ट रहने का रहस्य  सीख लिया था:

मैं अपने किसी अभाव के कारण यह नहीं कहता, क्योंकि मैंने प्रत्येक परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना सीख लिया है। मैं दीन – हीन दशा तथा सम्पन्नता में भी रहना जानता हूँ, हर बात और प्रत्येक परिस्थिति में मैंने तृप्त होना, भूखा रहना, और घटना – बढ़ना सीख लिया है। जो मुझे सामर्थ्य प्रदान करता है, उसके द्वारा मैं सब कुछ कर सकता हूँ। (फिलिप्पियों 4:11-13) 

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जॉन पाइपर
जॉन पाइपर

जॉन पाइपर (@जॉन पाइपर) desiringGod.org के संस्थापक और शिक्षक हैं और बेथलेहम कॉलेज और सेमिनरी के चाँसलर हैं। 33 वर्षों तक, उन्होंने बेथलहम बैपटिस्ट चर्च, मिनियापोलिस, मिनेसोटा में एक पास्टर के रूप में सेवा की। वह 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं, जिसमें डिज़ायरिंग गॉड: मेडिटेशन ऑफ ए क्रिश्चियन हेडोनिस्ट और हाल ही में प्रोविडेन्स सम्मिलित हैं।

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