यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है कि “ख्रीष्ट का मरना क्यों आवश्यक था?” क्योंकि ख्रीष्ट ने इस संसार में रहते हुए किसी भी प्रकार का पापी जीवन नहीं जीया। वह पूर्ण रीति से पवित्र और निर्दोष था। वह अपने पापों के लिए नहीं मरा और न ही उसे क्रूस की शापित और शर्मनाक मृत्यु मिलनी चाहिए थी। उसने हमारे बदले सिद्ध जीवन जीया जो हमें जीना चाहिए था। यीशु ख्रीष्ट पूरे संसार का सबसे सिद्ध जन था। फिर क्यों ख्रीष्ट का मरना आवश्यक था? इस लेख में हम इसी बात को देखेंगे।
परमेश्वर की इच्छा व योजना को पूर्ण करने हेतु
“फिर भी यहोवा को यही भाया कि उस कुचले। उसी ने उसको पीड़ित किया…।” (यशायाह 53:10) परमेश्वर की आरम्भ ही से यह योजना थी कि त्रिएक परमेश्वर का दूसरा जन इस संसार में आए और मनुष्य के पापों के लिए मारा जाए। परमेश्वर का वचन इस बात को स्पष्ट करता है, “जिसने हमारा उद्धार किया, और पवित्र बुलाहट से बुलाया, हमारे कामों के अनुसार नहीं परन्तु अपने ही उद्देश्य और अनुग्रह के अनुसार जो ख्रीष्ट यीशु में अनन्तकाल से हम पर हुआ” (2 तीमुथियुस 1:9)। परमेश्वर ने सारे संसार के पापों का अपना पूरा प्रकोप अपने एकलौते पुत्र यीशु ख्रीष्ट पर डाल दिया और उसे पाप ठहरा दिया (2 कुरिन्थियों 5:21) “जो पाप से अनजान था, उसी को उसने हमारे लिए पाप ठहराया कि हम उसमें परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएँ।” यद्यपि परमेश्वर के प्रकोप का प्याला पीना स्वयं ख्रीष्ट के लिए अति कठिन था, परन्तु उसने कहा कि “… फिर भी मेरी ही नहीं परन्तु तेरी इच्छा पूरी हो” (मरकुस 14:36)। ख्रीष्ट ने परमेश्वर की इच्छा को पूरा करते हुए स्वयं, सुखदायक सुगन्धित भेंट बनकर हमारे लिए अपने आपको परमेश्वर के सम्मुख बलिदान कर दिया (इफिसियों 5:2)।
हमारे बदले में पाप की मज़दूरी (मृत्यु) को चुकाने के लिए
“क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है” (रोमियों 6:23)।
पाप के कारण संसार में मृत्यु ने प्रवेश किया। पाप ने परमेश्वर की भली सृष्टि को विकृत करके दूषित कर दिया। इस विकृतता में हम मनुष्य भी सम्पूर्ण रीति से सहभागी हैं। उत्पत्ति 6:5 के अनुसार, “तब यहोवा ने देखा कि पृथ्वी पर मनुष्य की दुष्टता बहुत बढ़ गई है, और उसके मन का प्रत्येक विचार निरन्तर बुरा ही होता है।” मनुष्य पूरी रीति से भ्रष्टता का जीवन जीता आ रहा है और परमेश्वर का प्रकोप उस पर बना हुआ है। इसलिए रोमियों में पौलुस कहता है कि पाप का केवल एक ही परिणाम है – मृत्यु। ख्रीष्ट का मरना अनिवार्य था क्योंकि पाप की मृत्यु को मनुष्य अनन्त काल तक सहन नहीं कर सकता था। रोमियों 5:8, “… जब हम पापी ही थे ख्रीष्ट हमारे लिए मरा।” क्योंकि पाप हुआ है तो परमेश्वर उसका न्याय करेगा। हम परमेश्वर के पवित्र और न्यायी प्रकोप का सामना करने में असक्षम हैं। परमेश्वर सिद्ध बलिदान की माँग करता है और वह केवल ख्रीष्ट ही हो सकता था, क्योंकि वह सौ प्रतिशत सिद्ध जन था। इसलिए ख्रीष्ट को हमारे पापों के बदले में मरना पड़ा।
हमारे पापों की क्षमा हेतु
“हमें, उसमें, उसके लहू के द्वारा छुटकारा, अर्थात हमारे अपराधों की क्षमा, उसके अनुग्रह के धन के अनुसार मिली है” ( इफिसियों 1:7)।
मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता पापों की क्षमा है और इसे वह स्वयं के कार्यों के द्वारा नहीं प्राप्त कर सकता है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य के सारे कार्य मैले चिथड़े कपडों के समान हैं। हम अच्छे काम और बुरे काम जो हमने गुप्त में किए हैं वह परमेश्वर से छिपे नहीं हैं। क्योंकि परमेश्वर के सामने सब कुछ खुला और नग्न है (इब्रानियों 4:13)। परमेश्वर सच में व वास्तविक रूप से है। वह केवल हमारी कल्पना ही नहीं है। इसलिए परमेश्वर अवश्य ही हमारे कार्यों का लेखा लेगा। हमारे कार्य, सोच और शब्द जो हमारे हृदय से निकलते हैं पूर्णतः दूषित हैं और परमेश्वर के विरोध में हैं जिनका परमेश्वर न्याय करेगा।
इसलिए यीशु ख्रीष्ट का मरना अनिवार्य था, ताकि हमारे पाप और अपराध जो हमने परमेश्वर के विरोध में किए थे उन समस्त दण्ड को यीशु ख्रीष्ट हमारे बदले सह ले। ख्रीष्ट ने हमारे पापों के लिए अपने आपको बलिदान कर दिया। इब्रानियों 9:25 में लिखा है कि, “… और लहू बहाए बिना क्षमा है ही नहीं।” न केवल वह हमको पाप के दण्ड से बचाने के लिए मरा, परन्तु ख्रीष्ट इसलिए भी मरा क्योंकि हमारे अन्दर क्षमता ही नहीं थी कि हम अपने पापों से क्षमा प्राप्त कर सकते। पौलुस कहता है कि जब हम निर्बल ही थे तब ख्रीष्ट भक्तिहीनों के लिए मरा (रोमियों 5:6)। मसीह एक मेमने के समान मर गया, क्योंकि वह जगत में आया था एक मेमने के समान जगत के पापों को उठाने के लिए (यूहन्ना 1:29)।
परमेश्वर के साथ हमारे मेल हेतु
“क्योंकि परमेश्वर को यही भाया कि समस्त परिपूर्णता उसी में वास करे, और उसके क्रूस पर बहाए गए लहू के द्वारा शान्ति स्थापित कर के उसी के द्वारा समस्त वस्तुओं का अपने साथ मेल कर ले” कुलुस्सियों 1:22-23
परमेश्वर अदन की वाटिका में मनुष्य के साथ संगति करता था, परन्तु पाप के कारण परमेश्वर के साथ मनुष्य की संगति समाप्त हो गई। पाप के कारण परमेश्वर और मनुष्य के मध्य अलगाव हो गया। यीशु ख्रीष्ट ने क्रूस पर अपनी मृत्यु के द्वारा मनुष्य और परमेश्वर मध्य शान्ति स्थापित किया और मेल कराया। पाप को, जिसके कारण अलगाव था उसे ख्रीष्ट ने अपनी मृत्यु के द्वारा समाप्त कर दिया। न केवल इतना परन्तु उसने हमें अपनी धार्मिकता दे दी। अब हम ख्रीष्ट में, परमेश्वर के पास यीशु की धार्मिकता लेकर जा सकते हैं। ख्रीष्ट की मृत्यु के द्वारा अब हमारा एक देह में होकर परमेश्वर से मेल हो गया है (इफिसियों 2:16)। परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध बदल गया है। अब हम उसके पुत्र और पुत्री हैं।
अन्ततः हम देखते हैं कि परमेश्वर पवित्र है और वह उस पवित्रता की माँग करता है जिसकी क्षमता हमारे भीतर नहीं हैं। इसलिए ख्रीष्ट की मृत्यु ही हमें अनन्त मृत्यु दण्ड से बचा सकती है और परमेश्वर के साथ सदा का जीवन प्रदान कर सकती है। ख्रीष्ट में होने के कारण हमें ख्रीष्ट की पवित्रता विश्वास के द्वारा दे दी जाती है। इसलिए हमें यीशु के सिद्ध जीवन, और हमारे पापों हेतु उसकी त्यागपूर्ण तथा दण्डात्मक प्रतिस्थापनीय मृत्यु पर, और यीशु के पुनः जी उठने पर विश्वास करना चाहिए।