परमेश्वर की जितनी भी प्रतिज्ञाएँ हैं यीशु में ‘हाँँ’ ही ‘हाँ’ हैं। इसलिए उसके द्वारा हमारी आमीन भी परमेश्वर की महिमा के लिए होती है। (2 कुरिन्थियों 1:20)
प्रार्थना वह स्थान है जहाँ भूतकाल और भविष्यकाल हमारे जीवन में बार-बार जुड़ते हैं। मैं यह बात यहाँ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पौलुस इस पद में प्रार्थना को परमेश्वर के हाँ के साथ एक अद्भुत रीति से जोड़ता है।
2 कुरिन्थियों 1:20 में, वह कहता है (जटिल यूनानी में जो कि जटिल हिन्दी में दिखता है), “इसीलिए उसके द्वारा हमारी आमीन भी परमेश्वर की महिमा के लिए होती है।” आइए इसे समझने का प्रयास करें।
यहाँ वह यह कह रहा है, “इसलिए, ख्रीष्ट के कारण, हम यह दर्शाने के लिए अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर को आमीन कहते हैं कि परमेश्वर को उस भविष्य-में-प्राप्त-होने-वाले-अनुग्रह के कारण महिमा मिलती है जिसकी हम प्रार्थना में माँग करते हैं तथा बाट जोहते हैं।
यदि आपने कभी इस बात को सोचा है कि ख्रीष्टीय लोग क्यों अपनी प्रार्थनाओं के अन्त में आमीन कहते हैं, और यह प्रचलन कहाँ से आया है, तो उसका उत्तर यहाँ पर है। आमीन एक शब्द है जो बिना किसी अनुवाद के इब्रानी से सीधा यूनानी में लिया गया है, वैसे ही जैसे यह हिन्दी और अन्य कई भाषाओं में बिना किसी अनुवाद के आया है।
इब्रानी में, यह एक बहुत ही दृढ़ पुष्टि थी (गिनती 5:22; नहेमायाह 5:13; 8:6) – एक औपचारिक, सत्यनिष्ठ, गम्भीर “मैं सहमत हूँ” या “जो अभी कहा गया मैं उसकी पुष्टि करता हूँ” या “यह सत्य है”। सबसे सरल रूप में “आमीन” का अर्थ परमेश्वर को सम्बोधित करने के सन्दर्भ में अत्यन्त सत्यनिष्ठापूर्ण हाँ है।
अब 2 कुरिन्थियों 1:20 के दोनों भागों के मध्य के सम्बन्ध पर ध्यान दें। पहला भाग कहता है, “परमेश्वर की जितनी भी प्रतिज्ञाएँ हैं यीशु में ‘हाँ’ ही ‘हाँ’ हैं।“ दूसरा भाग कहता है, “इसीलिए उसके द्वारा हमारी आमीन भी परमेश्वर की महिमा के लिए होती है।”
जब हम यह समझ जाते हैं कि “आमीन” और “हाँ” का अर्थ एक ही है, तो यह पद यह कहता है: यीशु ख्रीष्ट में होकर अपनी प्रतिज्ञाओं के माध्यम से परमेश्वर हमें हाँ कहता है; और ख्रीष्ट में होकर प्रार्थनाओं के माध्यम से हम परमेश्वर को अपना हाँ कहते हैं।