सुसमाचार को किस प्रकार से बाँटना चाहिए? सुसमाचार सुनाने की आज्ञा हमें यीशु मसीह ने मत्ती 28:18-20 में दी। यह वह आज्ञा है जिसे यीशु मसीह अपने स्वर्गारोहण से कुछ समय पहिले ही देते हैं। प्रेरितों द्वारा लिखी गई पुस्तकें तथा शेष नया नियम हमें यह दिखाता है कि चेले इस बात को सही रीति से समझ गए,जिसका प्रमाण हमें शेष नये नियम एवं विशेषकर प्रेरितों के काम की पुस्तक में देखने को मिलता है। उन्होंने यरूशलेम, यहूदिया, सामरिया तथा पृथ्वी के छोर तक सुसमाचार का प्रचार किया। यहाँ तक कि यीशु के बारह शिष्यों में से एक शिष्य थोमा लगभग 50 ई. या 55 ई. में भारत में सुसमाचार सुनाने आया।
परन्तु प्रश्न अभी भी यही है कि वे यह सब किस प्रकार करने पाए? पौलुस ने तीन मिशनरी यात्राएं की एवं उसने बहुत से लोगों को सुसमाचार सुनाया। वह कुलुस्सियों को लिखी पत्री में सुसमाचार की वृद्धि के लिए कुछ प्रार्थना निवेदन देता है जो हमें बताता है कि वे किस प्रकार से सुसमाचार का कार्य करने पाएं। ये पद हमें प्रेरितों के भरोसे तथा निर्भरता की एक झलक प्रस्तुत करते हैं। यहाँ वचन से इस दृष्टिकोण पर ध्यान देंगे जो हमारी सहायता करेगा कि हम सुसमाचार के लिए किस प्रकार तैयार हों—
“इसके साथ ही हमारे लिए प्रार्थना करते रहो कि परमेश्वर हमारे लिए वचन सुनने का ऐसा द्वारा खोले दे कि हम मसीह के उस रहस्य का वर्णन कर सके जिसके कारण मैं बन्दी भी बनाया गया हूँ। कि मैं ऐसी स्पष्टता से प्रचार कर सकूँ कि जैसे कि मुझे करना चाहिए।”
कुलुस्सियों 4:3।
स्वयं के लिए तथा अवसरों के लिए प्रार्थना कीजिए। पौलुस कुलुस्सियों की कलीसिया को लिखे गए पत्र को समाप्त करते हुए कुछ चकित करने वाले प्रार्थना निवेदनों को देता है। ये निवेदन उस व्यक्ति से आए हैं जिसने सबसे अधिक सुसमाचार का प्रचार किया। चकित करने वाली बात यह है कि पौलुस स्वयं के लिए प्रार्थना निवेदन दे रहा है कि कुलुस्सियों के लोग उसके लिए प्रार्थना करें ताकि सुसमाचार की वृद्धि हो।
मैं आपको इस वचन से उत्साहित करना चाहता हूँ कि सुसमाचार सुनाने के लिए हमें किसी अलौकिक प्रतिभा की आवश्यकता नहीं है परन्तु हमें परमेश्वर के समीप जाने की आवश्यकता है। यह सच है कि परमेश्वर ने सुसमाचार के विस्तार के लिए पौलुस के द्वारा अद्भुत कार्य भी कराए परन्तु पौलुस उन कार्यों को दोहराने के लिए प्रार्थना निवेदन नहीं दे रहा है क्योंकि वह इस बात को समझ गया है कि केवल परमेश्वर ही सुसमाचार सुनाने की सामर्थ्य एवं अवसर प्रदान कर सकता है। परमेश्वर का वचन हमें एक-दूसरे के लिए प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करता है कि परमेश्वर हमें स्पष्टता से सुसमाचार को समझने में सहायता करे तथा सुसमाचार के लिए द्वार खोले।
साहस से कदम बढ़ाइए।
सुसमाचार के कार्य में प्रार्थना के साथ-साथ हमें विनम्र-साहस से कदम उठाना होगा। पौलुस थिस्सलुनीकियों की कलीसिया को अपने सुसमाचार प्रचार के तरीके को इस प्रकार वर्णित करता है, “पर तुम तो जाते हो कि फिलिप्पी में दुख उठे और दुर्व्यवहार सहने के बाद भी हमें अपने परमेश्वर में ऐसा साहस प्राप्त हुआ कि, घोर विरोध के होते हुए भी, हम तुम्हें परमेश्वर का सुसमाचार सुना सके” (1 थिस्स. 2:2) पौलुस हमें दिखा रहा है कि हमें लोगों के भय से उभरकर परमेश्वर के भय में बढ़ना होगा। हमें इस बात की चिन्ता से मुक्त होना होगा कि लोग बुरा मान जाएंगे। परन्तु हमें स्मरण रखना है कि हमें परमेश्वर के सम्मुख एक दिन न्याय के लिए खड़े होंगे। पौलुस की चिन्ता लोगों के आत्मिक जीवन की है। वह गैर-विश्वासी लोगों को देखकर तरस से भरा और उसने उन्हें सुसमाचार सुनाया।
आरम्भिक कलीसिया को बहुत अधिक सताव में से होकर जाना पड़ा परन्तु हम बार-बार यह देखते हैं कि प्रेरित हो या सामान्य लोग वे वचन का प्रचार परमेश्वर पर निर्भर होते हुए एवं विनम्रता एवं साहस से प्रचार कर रहे हैं। लोगों की आलोचनाएं, धमकियाँ तथा जोखिम, यहाँ तक की बहुतों को मृत्यु को भी गले लगाना पड़ा परन्तु विश्वासी लोग साहस से वचन का प्रचार करते रहे। क्योंकि वे सुसमाचार के सत्य को समझ गए। पौलुस के शब्द हमें उत्साहित कर रहे हैं कि हम भी कठिन तथा विषम परिस्थिति में साहस से सुसमाचार सुनाएं।
परमेश्वर पर भरोसा रखिए कि वह लोगों को बचाएगा।
सुसमाचार सुनाने के लिए तीसरा दृष्टिकोण है कि हम लोगों के उद्धार के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखें। यदि हम यह बात समझ जायेंगे तो हम पौलुस के समान कहने पायेंगे कि हम ठग-विद्या तथा वचन को गलत रीति से प्रस्तुत नहीं किया (1 थिस्स. 2:3-5)। जब हम समझ जाते हैं कि प्रत्येक वह जन जो सुसमाचार पर विश्वास नहीं करता है वह पापों में मरा हुआ है और जब तक पवित्र आत्मा वचन के द्वारा नया जन्म न दे तब तक वह व्यक्ति परमेश्वर के पास नहीं आ सकता है, तो हम वचन में मिलावट नहीं करते हैं। फिर हम अपनी प्रतिभा तथा क्रियात्मक क्षमता पर नहीं परन्तु परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं। इसी बात को पौलुस कुरिन्थियों की कलीसिया को बताता है कि “मेरा सन्देश और मेरा प्रचार ज्ञान के लुभाने वाले शब्दों में नहीं था, परन्तु आत्मा और सामर्थ्य के प्रमाण में था, जिससे कि तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं परन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य पर आधारित हो” (कुरि. 2:4,5)।
अतः यदि हमने सुसमाचार को सही रीति से नहीं समझा है तो हम सुसमाचार सुनाने को बोझ समझेंगे। परन्तु जब हम सुसमाचार को समझ जाते हैं कि परमेश्वर पवित्र, सृष्टिकर्ता, धर्मी न्यायी परमेश्वर है। मनुष्य ने परमेश्वर का विद्रोह किया है और अनन्तकाल के दण्ड के लायक है। परन्तु न्यायी परमेश्वर, प्रेमी पिता भी है, उसने मानव जाति पर अपने प्रेम को इस प्रकार से दिखाया है कि अपना इकलौता पुत्र दे दिया। वह हमें आज्ञा देता कि हम सुसमाचार को सब लोगों तक पहुँचाएं ताकि लोग अपने पापों से पश्चाताप करें। यदि हम सच में सुसमाचार समझ जाएंगे तो सुसमाचार की सच्ची समझ हमें सुसमाचार बाँटने के लिए प्रेरित करेगी।