“अपने शत्रुओं से प्रेम करो और जो तुम्हें सताते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।” (मत्ती 5:44)
अपने शत्रुओं के लिए प्रार्थना करना प्रेम करने की विभिन्न रीतियों में से सबसे गहन रीति है, क्योंकि इसका अर्थ यह है कि आप वास्तव में चाहते हैं कि उनके साथ कुछ भला हो।
आप बिना किसी वास्तविक इच्छा के भी अपने शत्रुओं के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं ताकि उनके जीवन में सब ठीक ठाक हो। परन्तु उनके लिए प्रार्थना तो परमेश्वर की उपस्थिति में होती है जो आपके हृदय को जानता है, और प्रार्थना करना उनके पक्ष में परमेश्वर से मध्यस्थता करना है।
हो सकता है यह [प्रार्थना] उनके हृदय परिवर्तन के लिए हो। यह उनके पश्चाताप के लिए हो सकती है। हो सकता है कि यह उनके हृदयों में व्याप्त शत्रुता से उन्हें अवगत कराने के लिए हो। यह हो सकता है कि उन्हें पाप के जाल में धंसने से रोक दिए जाने के लिए हो, भले ही इसके लिए बीमारी या विपत्ति का आना हो। परन्तु यहां जो प्रार्थना यीशु के मन में है, वह सदैव उनकी भलाई के लिए है।
यीशु ने यह किया जब वह क्रूस पर लटका था:
“हे पिता इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।” (लूका 23:34)
और स्तिफनुस ने भी यही किया जब उसका पथराव किया जा रहा था:
और अपने घुटनों के बल गिरकर वह ज़ोर से चिल्लाया, “प्रभु, यह पाप उन पर मत लगा!” (प्रेरितों के काम 7:60)
यीशु हमें मात्र अपने शत्रुओं के लिए भला कार्य करने हेतु ही नहीं बुला रहा है, जैसे कि उनका अभिवादन करना और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता करना (मत्ती 5:47); वह हमें उनके सर्वोत्तम की अभिलाषा के लिए बुला रहा है, और उन अभिलाषाओं को प्रार्थनाओं में व्यक्त करने के लिए, भले ही शत्रु हमारे आस-पास नहीं हो।
हमारे हृदयों को उनके उद्धार की अभिलाषा तथा हमारे साथ स्वर्ग में उनकी उपस्थिति एवं अनन्त प्रसन्नता की अभिलाषा करनी चाहिए। काश परमेश्वर हमें प्रेरित पौलुस के समान प्रार्थना करने का अनुग्रह दे जैसे उसने यहूदी लोगों के लिए प्रार्थना किया, जिनमें से अनेक लोगों ने पौलुस के जीवन को बहुत कठिन बना दिया था:
मेरी हार्दिक अभिलाषा और परमेश्वर से उनके लिए प्रार्थना है कि वे उद्धार पाएं। (रोमियों 10:1)