पास्टर जॉन से पूछें
क्या मेरा पश्चात्ताप सच्चा है यदि मैं वही पाप निरन्तर करता रहूँ?
जॉन पाइपर द्वारा भक्तिमय अध्ययन

जॉन पाइपर द्वारा भक्तिमय अध्ययन

संस्थापक और शिक्षक, desiringGod.org

डेविड नाम के एक पॉडकास्ट (रेडियो कार्यक्रम) श्रोता हैं जिन्होंने हमसे प्रायः पूछे जाने वाला एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है। और उचित कारणों से यह प्रश्न हमसे प्रायः पूछा जाता है। वह प्रश्न यह है कि: यदि मेरा पश्चात्ताप सच्चा है, तो मैं निरन्तर उसी पाप का अंगीकार क्यों करता रहता हूँ? डेविड कुछ इस प्रकार से अपनी बात कहते हैं। “प्रिय पास्टर जॉन आपके द्वारा की जाने वाली इस, पास्टर जॉन से पूछें (Ask Pastor John) सेवकाई के लिए धन्यवाद। आपके बाइबल आधारित प्रतिउत्तरों ने मेरे जीवन के ऐसे कठिन समय में सहायता की है जब मुझे अपने जीवन की परिस्थितियों को सम्भालने के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। मेरा प्रश्न पश्चात्ताप से सम्बन्धित है। क्या सच्चे पश्चात्ताप का अर्थ यह है कि हमें कभी भी एक पाप के लिए परमेश्वर से दो बार क्षमा नहीं माँगनी चाहिए? मुझे कई बार अनेक प्रकार के पापों के लिए क्षमा माँगनी पड़ी है। किन्तु मैं यह बात कैसे कह सकता हूँ कि मैंने पश्चात्ताप कर लिया है जबकि मैं एक ही प्रकार के पाप को बार-बार दोहराता हूँ? यह प्रश्न मुझे इस स्तर तक कष्ट देता है, कि जब मैं इसके विषय में सोचता हूँ तो, कभी-कभी मैं मानसिक तनाव से घिर जाता हूँ।”

डेविड का प्रश्न प्रायः सबसे अधिक पूछे जाने वाले प्रश्नों में से एक है जिसे विशेष रूप से नये नियम में पवित्रता की माँगों और साथ ही इसकी चेतावनियोंं के प्रकाश में, एक विश्वासयोग्य और सच्चे ख्रीष्टीय को अवश्य ही पूछना चाहिए: 

  • विश्वास भी बिना परिवर्तित जीवन के अपने आप में मृतक है। (याकूब 2:17)
  • एक ऐसी भी पवित्रता है जिसके बिना हम प्रभु को नहीं देखेंगे। (इब्रानियों 12:14)
  • यीशु ने कहा, “यदि तुम मुझ से प्रेम करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।” (यूहन्ना 14:15)
  • उस दिन अनेक लोग यीशु से कहेंगे, “हे प्रभु, हे प्रभु।” वह कहेगा, “मैंने तुम को कभी नहीं जाना क्योंकि तुमने वह नहीं किया जो मैंने कहा था।” (देखें मत्ती 7:22-23)
  • यदि तुम ख्रीष्ट के साथ उसकी मृत्यु में सहभागी हो गए हो तो कैसे तुम अभी भी पाप में जीवन व्यतीत कर सकते हो? (रोमियों 6:2)

गम्भीर एवं सच्चे ख्रीष्टियों के मध्य यह एक अतिआवश्यक तथा वास्तव में प्रायः पूछे जाने वाला प्रश्न है।

प्रतिदिन पाप के साथ व्यवहार करना

मैं इस बात को स्पष्ट करते हुए आरम्भ करूँगा कि इस प्रश्न को नये नियम की भाषा में कैसे पूछा जाना चाहिए, न कि जिस प्रकार से डेविड ने इस प्रश्न को पूछा है। डेविड ने अपने प्रश्न को प्रस्तुत करने के लिए पश्चात्ताप  (repent)  शब्द का उपयोग किया है। वो कहते हैं कि क्या सच्चे पश्चात्ताप का अर्थ यह है कि हमें कभी भी एक पाप के लिए परमेश्वर से दो बार क्षमा नहीं माँगनी चाहिए? यदि मैं उसी प्रकार के पाप को प्रायः करता रहता हूँ तो फिर मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैंने पश्चात्ताप किया है?” मैं यह सुझाव दूँगा कि एक ख्रीष्टीय व्यक्ति के रूप में हमें प्रतिदिन के पापों के लिए पश्चात्ताप  शब्द का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह विचार लोगों को आश्चर्यचकित कर सकता है, परन्तु मैं इसे समझाने का प्रयास करूँगा। 

निश्चय ही मैं यह विश्वास करता हूँ कि ख्रीष्टीयगण प्रतिदिन पाप करते हैं, क्योंकि यीशु ने यह कहने के साथ ही कि “हमारे दिन भर की रोटी आज हमें दे” यह भी कहा है कि “हमारे अपराधों को क्षमा कर” (मत्ती 6:11-12)। मैं तो बिना किसी सन्देह के इस बात पर विश्वास करता हूँ कि यदि हमारे पापों के लिए प्रतिदिन क्षमा की आवश्यकता नहीं होती, तो उसने यह नहीं कहा होता कि परमेश्वर हमारे अपराधों को क्षमा कर। निश्चय ही जब मैं ऐसा कहता हूँ तो मैं नए नियम के अनुसार पाप की एक बहुत ही आधारभूत परिभाषा दे रहा हूँ। मेरी परिभाषा यह है: कोई भी विचार, कोई भी स्वभाव, कोई भी बात, मुख का कोई भी हाव-भाव, कोई भी सांकेतिक मुद्रा या ऐसा कोई भी कार्य जो यीशु को बहुमूल्य न जानने के आभाव से आता है, वह पाप है। 

पाप हृदय की एक ऐसी स्थिति है जो अन्य वस्तुओं को प्राथमिकता देने के कारण परमेश्वर से दूर हो जाती है।”

पाप केवल गम्भीर अनैतिक कार्य ही नहीं हैं, जैसे कि हत्या, चोरी, व्यभिचार या फिर अन्य नियमित किए जाने वाले पाप जैसे कपट या अभद्र भाषा का उपयोग करना अथवा अधीरता। किन्तु पाप हृदय की एक ऐसी स्थिति है जिसका झुकाव परमेश्वर के विपरीत अन्य वस्तुओं को प्राथमिकता देने की है, और उस प्राथमिकता की ऐसी कोई भी अभिव्यक्ति पाप है जो हमारे मन या व्यवहार या आचरण में है। यह दुख की बात है कि — पाप की उपस्थिति हमारे साथ है और रहेगी, और यह हमारे हृदय को तोड़ती है। पाप हमारे साथ तब तक बना रहेगा जब तक कि वह आन्तरिक स्थिति ख्रीष्ट की उपस्थिति में पूरी रीति से ध्वस्त नहीं हो जाती है। 

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि नया नियम हमें दैनिक जीवन में होने वाले पापों को स्वीकार करने, उन्हें परमेश्वर के सम्मुख लाने, अपना दुख व्यक्त करने, उन पापों से घृणा करने, और नई रीति से ज्योति में चलने के लिए मुड़ने हेतु पश्चाताप  शब्द का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता है। जबकि नए नियम में पश्चात्ताप  शब्द बड़ा ही मौलिक तथा आधारभूत रीति से मन के परिवर्तन को सन्दर्भित करता है। वह अनुभव जिसे हम ख्रीष्टीय जीवन के आरम्भ में अनुभव करते हैं। और ऐसा अनुभव हमें तब भी करना पड़ सकता है जब हमारा जीवन एक भयंकर विनाश की ओर मुड़ गया हो और हमें उस विनाश के मार्ग से वापस बुलाए जाने की आवश्यकता हो — जैसा कि प्रकाशितवाक्य के आरम्भिक अध्यायों में वर्णित कलीसियाएँ जिन्हें पश्चात्ताप करने के लिए बुलाया गया था क्योंकि वे नाश होने वाली थीं, यदि वे पश्चात्ताप नहीं करती हैं और अपने जीवन की चाल से पीछे नहीं हटती हैं, तो उनके दीपदानों को हटा दिया जाएगा।  

परन्तु नया नियम हमारे भीतर वास करने वाले तथा बार- बार होने वाले पाप को छोड़ने के दैनिक अभ्यास हेतु पश्चात्ताप  शब्द का उपयोग नहीं करता है। इसके स्थान पर, मैं सुझाव दूँगा कि 1 यूहन्ना 1:8-9 अंगीकार (confession) शब्द को प्रस्तुत करता है: “यदि हम अपने पापों को मान लें (अंगीकार करें), तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है।” 

दो प्रकार के अंगीकार

तो फिर हम उन पापों के विषय में क्या कहें जिन्हें हम एक बार से अधिक करते हैं — वास्तव में ये पाप इतनी बार हो जाते हैं मानो कि वे हमारे ख्रीष्टीय होने के आश्वासन को नष्ट करने की धमकी दे रहे हैं? मैं इसको इस प्रकार कहूँगा: दो प्रकार के अंगीकार होते हैं और दो प्रकार के पाप होते हैं, इसलिए अब आप स्वयं को परखें कि आप कौन सा अंगीकार या पाप कर रहे हैं। 

सबसे पहले एक ओर तो ऐसा अंगीकार है जो पाप करने के पश्चात् दोष-बोध और दुख को व्यक्त करता है। परन्तु इसके पीछे यह धारणा भी छिपी होती है कि सम्भवतः सप्ताह का अन्त होने से पहले ही यह पाप फिर से होने वाला है। 

  • मैं एक चलचित्र में या किसी वेबसाइट पर फिर से नग्नता को देखने जा रहा हूँ (या कुछ इससे भी बुरा)।
  • मैं सम्भवतः सप्ताह के अन्त में फिर से अत्यधिक मदिरा पीने जा रहा हूँ। 
  • मैं कल पुनः कार्य स्थल पर उन अभद्र चुटकुलों पर हँसने जा रहा हूँ। 
  • मैं पुनः अपने सहयोगी को उसके कुटिल कामों के प्रति चिताने से बचूँगा। 
  • जब मेरी पत्नी पुनः मुझे अनादर की दृष्टि से देखेगी तो मैं अपनी पत्नी को अपमानजनक रीति से उत्तर दूँगा, सम्भवतः अब से दो दिन पश्चात् ही ऐसा होगा।   

दूसरे शब्दों में, इस प्रकार का अंगीकार बड़ा ही उथला है। यह नित्य होने वाले पापों के लिए भाग्यवाद का चोगा है। आपको उन पापों के विषय में बुरा आभास हो सकता है किन्तु आपने उनकी अपरिहार्यता के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। यह एक प्रकार का अंगीकार है। 

दूसरे प्रकार का अंगीकार वह है जब पाप के प्रति आप ठीक वैसे ही दोष-बोध और दुख को व्यक्त करते हैं जैसे पहले प्रकार के अंगीकार में किया था, किन्तु इस अंगीकार में पाप के प्रति आपकी घृणा इतनी वास्तविक है कि आपका उद्देश्य उसी रात या सप्ताह के अन्त में उस पाप से युद्ध करना होता है। आपका लक्ष्य पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से उस पाप को पराजित करना होता है। आप उन सभी उपायों को खोजने जा रहे हैं जो इस पाप का घात करने में आपकी सहायता करेंगे। आप उसकी सामर्थ्य को लूटने जा रहे हैं। आपकी यही योजना है— इसमें कोई पाखण्डपन नहीं है। अब, पाप अंगीकार करने के यही दो ढंग हैं। 

दो प्रकार के पाप

मैं दो प्रकार के जिन पापों का उल्लेख कर रहा हूँ वे ये हैं, पहला, यह इस प्रकार का पाप है जो आपकी दृष्टि से छिप कर आप पर आक्रमण करता है। यह पूर्वनियोजित या योजनाबद्ध रीति से नहीं है और जब यह घटित होता है तो विरले ही उस झण कोई युद्ध होता है। इससे पहले कि आप यह जान पाएँ कि आप क्या कर रहे हैं, यह हो चुका होता है। मैं अपने स्वयं के अनुभव से, कुछ ऐसे पापपूर्ण क्रोध का वर्णन कर सकता हूँ जो मेरे अन्दर आते हैं, और लगभग तुरन्त ही मैं बता सकता हूँ कि यह क्रोध— पवित्र नहीं है और न ही यह धर्मी है। अथवा हो सकता है कि अनायास ही कुछ कठोर शब्द मेरे मुँह से निकलते हैं, और जैसे ही मैं उन शब्दों को कहता हूँ, मैं लज्जित होता हूँ। अथवा कोई यौन वासना के विचार हो सकते हैं जो कुछ दशकों पुराने अनुभव या हाल ही के एक विज्ञापन के कारण जिसे आपने समाचार या कुछ और देखते समय देखा हो।

मैं इन बातों को दोषमुक्त नहीं ठहरा रहा हूँ; वे पाप हैं। वे निश्चय ही पाप हैं।  ये मेरे हृदय के विषय में कुछ दर्शाते हैं। मैं उन्हें पाप कह रहा हूँ, जबकि वे लगभग अनायास तथा पूर्वनियोजित पाप नहीं हैं।   

यहाँ एक अन्य प्रकार का पाप है जिसका मैं उल्लेख कर रहा हूँ; अर्थात यह पाप पूर्वनियोजित रीति से किया गया है। आप वास्तव में वहाँ बैठकर या खड़े होकर मूल्यांकन करते हैं कि इसे करें या न करें— अश्लील सामग्री देखें या न देखें, अश्लील चुटकुले सुनें या न सुनें, कार्यस्थल पर अन्याय होते हुए देखकर बोलें या न बोलें, अपना कर चुकाने में चोरी करें या न करें। आप दस सेकेण्ड या दस मिनट या दस घंटे संघर्ष करते हैं, और फिर आप पाप करते हैं।  

विनाश का मार्ग

अब, मेरे विचार से एक ख्रीष्टीय के लिए यह सम्भव है कि वह दोनों प्रकार के पाप करे और कुछ समय के लिए दोनों प्रकार के अंगीकार करे। परन्तु मैं कहूँगा कि वह अंगीकार हमारे प्राणों के लिए अधिक संकट भरा है जो भाग्यवाद, निराशा, पाप के साथ चैन से रहना और पूर्वनियोजित रीति से किए गए पाप को ढाँप लेता है। दोनों संकटपूर्ण हैं। मेरी बात समझने में त्रुटि मत कीजिए, दोनों संकटपूर्ण हैं। किन्तु अंगीकार जो पाखण्ड की सीमा के निकट है तथा पाप जो योजनाबद्ध रीति से अधार्मिकता की सीमा के निकट है, दोनों बड़े ही जोखिम से भरे हैं।

जैसा कि मैं इसे समझता हूँ, पौलुस रोमियों 7:16-19 में अंगीकार करता है, “मैं जो नहीं चाहता वही करता हूँ, और जिस भलाई की इच्छा करता हूँ, वह नहीं कर पाता हूँ।” वह ऊँचे स्वर से पुकार कर कहता है, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ!” (रोमियों 7:24)। फिर वह शुद्ध होने के लिए ख्रीष्ट की ओर भागता है। जितना भी अधिक मैं इस सूची को स्वयं के लिए पाना चाहूँ, किन्तु मैं नहीं सोचता हूँ कि हम पापों की एक सूची प्रदान कर सकते हैं जिसमें यह बताया गया हो कि आप कौन सा पाप कितनी बार कर सकते हैं और फिर भी बच सकते हैं। मुझे नहीं लगता है कि हम इसको इस रीति से कर सकते हैं कि हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकें कि कितना पाप करने के पश्चात् यह प्रमाणित हो जाएगा कि मैं एक ख्रीष्टीय नहीं हूँ? 

पाप हमारे साथ तब तक उपस्थित रहेगा जब तक कि वह आन्तरिक स्थिति ख्रीष्ट की उपस्थिति में पूरी रीति से ध्वस्त नहीं हो जाती है।

इसके विपरीत, मैं यह कहूँगा: कि यदि आपके पाप अंगीकार ने पाप की अपरिहार्यता के साथ एक भाग्यवादी शान्ति स्थापित कर ली है, और यदि आपका पाप पूर्वनियोजित अधार्मिकता की श्रेणी में आता है, तो आपको उतना ही अधिक, इस बात से भयभीत होना चाहिए कि आप ऐसे मार्ग पर हैं जो विनाश की ओर ले जा सकता है। मेरे विचार से हम बस यही कह सकते हैं।

क्षमा करने में विश्वासयोग्य

नए नियम की वह पुस्तक— जो कि अत्यन्त रोचक है तथा असत्याभासीय (paradoxically) प्रतीत होती है — सम्भवतः ख्रीष्टियों के पाप करने के विषय में सबसे कठोर है और वही पुस्तक सिद्धतावाद (perfectionism) के जोखिमों के विषय में भी सबसे स्पष्ट रीति से चेतावनी देती है। मैं 1 यूहन्ना 1:8-10 के इस असत्याभासी खण्ड को पढ़कर अपनी बात समाप्त करता हूँ। इस रीति से बाइबल असत्याभास के विषय में बात करने का चुनाव करती है। 

     यदि हम कहें कि हम में पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं, और हम में सत्य नहीं है। 
यह सिद्धतावाद के विरुद्ध एक चेतावनी है। इसके पश्चात् वह कहता है, 
यदि हम अपने पापों को मान लें…
और मेरे विचार से यहाँ ऐसे अंगीकार का अर्थ वास्तविक अंगीकार से है। 
… वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। 
इसके पश्चात् वह चेतावनी पर वापस जाता है। 
यदि हम कहें कि हमने पाप नहीं किया तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं।