“प्रार्थना, श्वास के समान है। यदि हम जीवित हैं, तो श्वास लेंगे ही लेंगे !”
प्रार्थना, मसीह जीवन का अभिन्न भाग है। प्रायः विश्वासी लोग तभी प्रार्थना करते हैं जब वे किसी आवश्यकता या समस्या में होते हैं। इस बात में कोई बुराई नहीं है कि हम कठिन समय में प्रार्थना करें, क्योंकि हम प्रत्येक बात के लिए प्रार्थना कर सकते हैं। परन्तु यदि हम केवल समस्या या आवश्यकता के समय में ही प्रार्थना करते हैं, तो फिर यह बाइबल के अनुसार मसीही जीवन नहीं है। परमेश्वर का वचन हमें आज्ञा देता है कि हम निरन्तर प्रार्थना करें! (1 थिस्सलुनीकियों 5:17)” क्यों? हम यहाँ चार कारणों पर विचार करेंगे।
हम परमेश्वर पिता से प्रेम करते हैं।
जिससे आप प्रेम करते हैं, आप उसके साथ समय व्यतीत करना चाहते हैं। इस प्रेम को हम अपनी प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर से व्यक्त करते हैं। हम विश्वासी एक समय परमेश्वर के शत्रु थे और हम परमेश्वर का विद्रोह कर रहे थे, परन्तु यीशु मसीह के द्वारा हमारा पिता से मेल-मिलाप हो गया है। अब हम उसकी सन्तान बन गए हैं और पवित्र आत्मा के द्वारा हमारे अन्दर परमेश्वर का प्रेम उण्डेल दिया गया है (रोमियो. 5:1-10, यूहन्ना 1:12)। हम पवित्र आत्मा की सहायता से परमेश्वर को, हे अब्बा! हे पिता! कह कर पुकार सकते हैं। मसीह के कारण हमारे पास साहस है कि हम परमेश्वर के पास कभी भी जा सकते हैं (इब्रानियों 4:16)। हम अपनी आवश्यकताओं, अपनी निर्बलताओं, और अपने पापों को लेकर उसके पास कभी भी जा सकते हैं, क्योंकि वह हमसे और हम उससे प्रेम करते हैं।
हम परमेश्वर से सहभागिता करना चाहते हैं।
परमेश्वर, आत्मा और सच्चाई से आराधना करने वालों को चाहता है (यूहन्ना 4:24)। यीशु मसीह ने कहा कि जब तुम प्रार्थना करो तो पाखण्डियों के समान दिखावा और बकबक मत करो (मत्ती 6:5)। हमारी प्रार्थना दिखावटी नहीं होनी चाहिए इसलिए केवल कह देने, दिखाने या लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं, परन्तु सच में, संगति करने के लिए होनी चाहिए। जैसे कि मूसा ने परमेश्वर के साथ संगति की। उसके बारे में कहा जाता है कि परमेश्वर उससे ऐसे बात किया मानो कि कोई अपने मित्र से बात कर रहा हो (निर्गमन 33:11)। नई वाचा के अन्तर्गत हम विश्वासियों के पास मूसा से भी उत्तम सौभाग्य है। यीशु मसीह के द्वारा हमारी परमेश्वर पिता से संगति है। इसी बात के लिए 1 यूहन्ना की पत्री में यूहन्ना हमें परमेश्वर के साथ संगति एवं सहभागिता रखने के लिए उत्साहित करता है। हम केवल परमेश्वर से माँगते ही नहीं रहते हैं, परन्तु हम परमेश्वर को चाहते हैं। हमें दाऊद के समान इस बात को कहना चाहिए कि – चाहे मेरा प्राण और शरीर दोनों हताश हो जाये; परन्तु मैं परमेश्वर को ही चाहूँगा। एक प्यासी हिरणी के समान मैं परमेश्वर के लिए प्यासा हूँ” (भजन 42:1)। चाहे जो भी परिस्थिति हो, चाहे कैसी भी समस्या हो, केवल एक बात की इच्छा है – परमेश्वर की ! इस संगति के परिणामस्वरूप हम “अंश-अंश करके यीशु मसीह के स्वरूप में बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3)।
हम परमेश्वर पर निर्भर हैं। (मत्ती 6:25-33;)
प्रार्थना, निर्भरता को दिखाती है। हम परमेश्वर पर अपने जीवन के आत्मिक, भौतिक एवं बौद्धिक इत्यादि क्षेत्रों के लिए निर्भर हैं। सुसमाचार के द्वारा हमें आत्मिक बातों के लिए प्रार्थना करने की समझ प्राप्त होती है। हम यह समझ जाते हैं कि हमारा उद्धार केवल त्रिएक परमेश्वर के द्वारा ही है और केवल वही हमारा प्रभु एवं राजा है। त्रिएक परमेश्वर ही सब कुछ का स्रोत है। इसलिए, हम प्रार्थना में अपनी और अन्य विश्वासियों की आत्मिक उन्नति, पवित्रता में वृद्धि, परिपक्वता इत्यादि में बढ़ने एवं परमेश्वर को और अधिक जानने के लिए प्रार्थना करते हैं। ऐसी ही प्रार्थनाओं का नमूना हम पौलुस की प्रार्थनाओं में पाते हैं (इफि. 1:15-23; 3:14-21)।
त्रिएक परमेश्वर ही सब कुछ का स्रोत है। इसलिए, हम प्रार्थना में अपनी और अन्य विश्वासियों की आत्मिक उन्नति, पवित्रता में वृद्धि, परिपक्वता इत्यादि में बढ़ने एवं परमेश्वर को और अधिक जानने के लिए प्रार्थना करते हैं।
आत्मिक बातों के साथ-साथ हम अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए परमेश्वर पर निर्भर होते हैं। निर्भरता के सम्बन्ध में यीशु मसीह हमें इस क्रम को समझने में सहायता करते हैं “पहले तुम उसके राज्य और धार्मिकता की खोज करो, तो तुम्हें सब वस्तुएं (इच्छित नहीं, आवश्यक वस्तुएं) मिल जाएंगी” (मत्ती 6:33) यीशु मसीह सिखा रहे हैं कि गैर-विश्वासियों के समान केवल भौतिक वस्तुओं के पीछे मत भागो, परन्तु अपनी प्राथमिकताएं बदलो। इसलिए हम प्रत्येक बात में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं।
हम आत्मिक युद्ध में हैं। (इफिसियों 6:11-18)
इफिसियों की पत्री का अन्त करते हुए पौलुस विश्वासियों को स्मरण दिलाता है कि प्रभु की शक्ति में बलवान बनो, क्योंकि हम आत्मिक युद्ध में हैं। वह विश्वासियों को स्मरण दिलाता है कि मसीह में हमारे पास आत्मिक हथियार हैं और हमें युद्ध में सक्रिय रहना है। पौलुस एक विश्वासी को एक आत्मिक सैनिक की वेशभूषा से चित्रित करता है। 12 पद से 17 पद में पौलुस बार-बार कहता है कि धारण करो…धारण करो.. ताकि सामना कर सको…और 18 पद में हम सोच सकते हैं कि वह आज्ञा देगा कि “लड़ो” परन्तु वह यह आज्ञा नहीं देता है। वह कहता है कि “आत्मा में निरन्तर प्रार्थना करो!” “सतर्क रहो…और सब विश्वासियों-सन्तों के लिए प्रार्थना करो” क्योंकि हमारा युद्ध माँस या लहू से नहीं, परन्तु अन्धकार की शक्तियों एवं शासकों से है। शैतान शक्तिशाली है। हम निर्बल मनुष्य हैं, परन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य से हमें आत्मिक युद्ध में शैतान का सामना करना है। यीशु मसीह ने क्रूस पर शैतान को हरा दिया है और परमेश्वर की सामर्थ्य से हम शैतान पर विजय पाते चले जाते हैं (रोमियों 16:20) इसलिए यीशु मसीह ने शिष्यों से कहा, “प्रार्थना करो ताकि तुम परीक्षा में न पड़ो! (मरकुस 14:38)।”
अन्त में नया जन्म पाए हुए मसीहियों का जीवन प्रार्थना से चिह्नित होगा। प्रभु के एक सेवक ने कहा, “प्रार्थना, श्वास के समान है। यदि हम जीवित हैं तो श्वास लेंगे ही लेंगे!” यह बात मसीही जीवन में प्रार्थना करने के सन्दर्भ में भी पूर्णतयः सटीक बैठती है। हम आत्मिक रीति से जीवित किए गए हैं। हमारा नया जन्म हो गया है। तो क्यों न हम परमेश्वर से प्रार्थना करें क्योंकि हम उस पर निर्भर हैं, और हमें आत्मिक युद्ध में उसकी आवश्यकता है। साथ ही साथ, हम उससे प्रेम करना चाहते हैं, उसके साथ संगति करना चाहते हैं।