चार झूठ जो हमें प्रार्थना से दूर रखते हैं

मैं दुर्लभ ही निर्धारित प्रार्थना के समय के पास आता हूँ, कम से कम एक कारण के विषय में बिना सोचे, और प्राय: एक से अधिक भी, कि मुझे प्रार्थना छोड़कर कुछ और करना चाहिए।

कुछ कारण स्वीकार्य जान पड़ते हैं: “मुझे नींद लेने की आवश्यकता है” या “मुझे बहुत सारा कार्य करना है।” अन्य कारण कम स्वीकार्य जान पड़ते हैं: “मैं यह जानने के लिए उत्सुक हूँ कि किसने खेल जीता” या “मुझे वास्तव में अपना ई-मेल देख लेना चाहिए था।” जब प्रार्थना का समय आता है तो मैं स्वयं में हस्तक्षेप करने वाली जैसे कुछ कारणों की अपेक्षा करना सीख रहा हूँ। मैं इन कारणों को उनके वास्तविक नामों से बुलाना भी सीख रहा हूँ: झूठ। 

अब, निस्सन्देह, ये कारण सदैव झूठे नहीं हैं। उदाहरण के लिए, नींद जीवन के मूलभूत बातों में से एक है, और हम अपने तकिए पर सिर रखकर भी अपने परमेश्वर का आदर कर सकते हैं, वैसे ही जैसे हम अपने घुटनों पर कर सकते हैं (भजन संहिता 127:1–2))। किन्तु जब ये कारण नियमित रीति से उस समय को चुरा लेते हैं जब हमने प्रार्थना करने की योजना बनाई थी, तो वे झूठ बन जाते हैं —  जो हमें प्रार्थना के शरीर-नाशक, नरक को विफल करने वाले, ईश्वरीय महिमा देने के कार्य से दूर रखने हेतु सुविधाजनक छल हैं।

यदि हम इन झूठों से मुखौटों को हटाकर उन्हें सामने से देख सकते हैं, तो हम यही देखते कि उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। विचार करें, तब, चार ऐसे झूठों के विषय में जो हमारी प्रार्थनाहीनता के पीछे छिपे हैं, और प्रभु यीशु उनमें से प्रत्येक को कैसे उजागर करता है।

यदि ख्रीष्ट में हैं, तो हमारे स्वर पिता से उतने ही दूर हैं जितना पुत्र उसके दाहिने हाथ से दूर हैं।

‘मेरे पास प्रार्थना के लिए समय नहीं है।’

उन सभी झूठी बातें की तुलना में जो हमें अपनी प्रार्थना हेतु घुटनों पर जाने से रोकती हैं, यह चतुराई भरा वाक्य प्रायः सत्य प्रतीत होता है। “मेरे पास समय नहीं है” साधारण तथ्य के समान जान पड़ता है, जो कि गणित से मेल खाता है। हम यह सोचते हैं कि “दिन के चौबीस घण्टे पहले ही भरे हुए हैं, प्रार्थना को कल तक प्रतीक्षा करनी होगी।”

हमारे उद्धारकर्ता ने इस रीति से तर्क नहीं दिया था। एक बार, जब उसने एक कुष्ठ से पीड़ित व्यक्ति को चंगा किया था, तो उसने गलील के लोगों के द्वारा स्वयं को चारों ओर से घेरे हुए पाया। वे पहले से ही उसके पास जाने के लिए उसको घेरे हुए थे (लूका 5:1), किन्तु अब “उसकी चर्चा दूर दूर तक फैलती जा रही थी, और बड़ी भीड़ उसकी सुनने और अपनी बीमारियों से चंगाई पाने के लिए इकट्ठी हो रही थी” (लूका 5:15)। मिशन सफल हो रहा था; बड़ी भीड़ आ रही थी—और न केवल चंगे होने के लिए, किन्तु “उसे सुनने” के लिए भी। निश्चय ही, असामान्य सेवकाई की माँग के इस समय में, इन खोई हुई भेड़ों को सिखाने के लिए यीशु को प्रार्थना करना छोड़ना उचित होता?

हम आगे पढ़ते हैं, “पर वह स्वयं निर्जन स्थान में चुपचाप जाकर प्रार्थना किया करता था” (लूका 5:16)। यीशु की दिनचर्या दिन के सबसे ऊँची वाणियों द्वारा निर्धारित नहीं होती थी। उसने कभी भी धोखा नहीं खाया, जैसे हम नियमित रूप से धोखा खाते हैं, कि यह या वह महत्वपूर्ण कार्य को उसके पिता के साथ उसकी एकान्त सहभागिता का स्थान लेना चाहिए।

जो लोग अपने आप को प्रार्थना के लिए समर्पित करना चाहते हैं, उन्हें यीशु के समान, अवश्य ही तैयार रहना चाहिए, अनेकों सर्वोत्तम अवसरों को न कहने के लिए (कम से कम उस समय के लिए)। जो लोग इस प्रकार की आज्ञाकारिता में यीशु का अनुसरण करते हैं, वे अपनी आत्म-निर्भरता को परमेश्वर की निर्भरता से, ऊपरी व्यस्तता को वास्तविक उत्पादकता से, तुरन्त कार्य करने की अत्याचारी नियन्त्रण को आत्मा के नियन्त्रण से परिवर्तित करते हैं।

‘प्रार्थना से कोई लाभ नहीं है।’

कुछ ही ख्रीष्टियों में पर्याप्त साहस होगा कि वे इस झूठ को व्यक्त करें। परन्तु हम में से कितने लोग प्रार्थना कक्ष में जाने से बचते हैं क्योंकि हम विश्वास करते हैं कि प्रार्थना से कोई लाभ नहीं है। सम्भवत: हमने ध्यान केन्द्रित करते हुए लम्बे समय के लिए प्रयास किया है, और यही पाया है कि हमारे मन सरलते से बहक जाते हैं, हमारी इच्छा-शक्ति निर्बल हैं, और लभ इतने कम हैं कि हम और अधिक प्रार्थना करने के लिए प्रेरित नहीं होते हैं।

इस झूठ में एक आधी-सत्य बात है: प्रार्थना में, जैसा कि यीशु ने पहले से सचेत किया है, कठिन प्रयास सम्मिलित है। जब यीशु ने अपने चेलों को कहा था कि उन्हें, “निराश हुए बिना उनको सदैव प्रार्थना करना चाहिए” (लूका 18:1), तो वह मानकर चल रहा था कि वे कभी-कभी प्रार्थना करेंगे और निराश होने के लिए प्रलोभित होंगे। जैसा कि यीशु के दृष्टान्त में विधवा के साथ हुआ (लूका 18:1–8), वास्तविक प्रार्थना बिना प्राप्त किए माँगने के, बिना पाए खोजने के, एक ऐसे द्वार पर खटखटाने के समयों की माँग करती है जो अन्दर से बन्द प्रतीत होता है।

परन्तु उस यथार्थवाद के साथ-साथ, यीशु इस झूठ को विखण्डित करता है कि हम इस प्रकार प्रयास व्यर्थ ही करते हैं। 

सब सच्ची तथा विश्वासयोग्य माँगना प्राप्त करने की ओर जाती है, सब सच्ची तथा विश्वासयोग्य खोजना पाने की ओर जाती है, तथा सब सच्ची तथा विश्वासयोग्य खटखटाना आशा से भरा एक द्वार खोलने की ओर जाती है जिसे अब स्थगित नहीं किया जाता है (मत्ती 7:8)। हमारा पिता जानता है कि प्रार्थना में हमारे संघर्षों को “अच्छी वस्तुएँ” के साथ कैसे चुकाया जाए (मत्ती 7:11) — जिनमें से सबसे उत्तम है उसकी  भलाई। यदि प्रार्थना हमें उसकी महिमा की गहरी झलक देती है, तो अपने ध्यान को एक ओर लगाने, अपनी देह को नकारने, और अपने सिर को पीछे झुकाने हर क्षण इसके योग्य है।

और उन दिनों में जब ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी प्रार्थनाएँ कहीं नहीं जाती, तो हमें सी. एस. लुईस की सम्मति को स्मरण करना चाहिए: “जब हम अपनी ‘धार्मिक कर्तव्यों’ को निभाते हैं, तो हम एक निर्जल भूमि में नहर खोदने वाले लोगों के समान हैं, जो इस उद्देश्य के कार्य कर रहे हैं कि जब अन्त में पानी आए, तो यह उनके लिए तैयार पाए जाए” (रिफ्लेक्शन्स ऑन द सामज़ – Reflections on the Psalms, 97)।  प्रार्थना में कुछ दिन हम केवल खोदते हैं और वर्षा की प्रतीक्षा करते हैं। अन्य दिनों में हम पीते हैं। परन्तु खुदाई के बिना कोई पीना नहीं है।

“झूठ हमें देह-नाशक, नरक को विफल करने वाला, परमेश्वर को महिमा देने वाला प्रार्थना के कार्य से दूर रखना है ”

झूठ हमें देह-नाशक, नरक को विफल करने वाला, परमेश्वर को महिमा देने वाला प्रार्थना के कार्य से दूर रखना है।

‘मैं बिना प्रार्थना के आज का दिन जी सकता हूँ’ 

जैसा कि पिछले झूठ के साथ था, कुछ ही ख्रीष्टीय, इस वाक्य को ऊँचे स्वर से बोलेंगे। परन्तु हम में से कई लोग अभी भी बिना शब्दों के इसे कहने के सौ रीतियों को खोज लेते हैं। उदाहरण के लिए, जब मैं, भरे पेट के साथ, समाचार के विषय में सचेत, और पूरी रात सोने के बाद, परन्तु  प्रार्थना रहित, दिन का आरम्भ करूँ, मैं कह रहा हूँ, “मैं आज बिना नाशते के, सूचना के, या मेरे पूरे आठ घण्टे की नीन्द के नहीं रह सकता हूँ, परन्तु मैं आज बिना प्रार्थना के रह सकता हूँ।”

इस झूठ की सामर्थ्य, कुछ सीमा तक हमारे अनुभव की साक्षी से आती है। हम में से कई लोगों ने अपने जीवन को नष्ट किए बिना प्रार्थना रहित दिन जिये हैं। सम्भवतः हम में से कुछ ने यह भी पाया है कि हम बिना प्रार्थना के आश्चर्यजनक रीति से सफल हो सकते हैं: हम बिना परमेश्वर की ओर देखे, हम अपना वेतन कमा सकते हैं, अपने बच्चों का पालन-पोषण कर सकते हैं, और अच्छे नम्बर प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्रकार की व्यावहारवाद (pragmatism) हमारे प्रभु के पवित्र वचनों को भूल जाती है: “जो मुझ में बना रहता है और मैं उसमें, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते” (यूहन्ना 15:5)। यीशु पर प्रार्थना-पूर्ण निर्भरता के अतिरिक्त (यूहन्ना 15:7), हम कुछ नहीं कर सकते हैं: कुछ भी नहीं जो परमेश्वर को महिमा देगा, कुछ भी नहीं जो अनन्तकाल तक बना रहेगा। हमारे प्रार्थनारहित प्रयासों के परिणाम कुछ  प्रतीत हो सकते हैं — यहाँ तक कि कुछ बहुत प्रभावशाली भी — परन्तु वे, परमेश्वर की दृष्टि में, आत्मिक रीति से शून्य हैं। हम डूबते जलयान में बँगला बना रहे हैं।

यदि हमारा उद्देश्य एक ऐसे संसार में सफल होने का है “जो मिटता जा रहा है” (1 यूहन्ना 2:17), तब हाँ, हम आज प्रार्थना के बिना रह सकते हैं। परन्तु यदि हमारा उद्देश्य कुछ ऐसे करने का है जो परमेश्वर के नाम को पवित्र मनवाएगा, कुछ ऐसा जो स्वर्गदूतों को सराहना करने के लिए प्रेरित करेगा, कुछ ऐसा जो अनन्त काल तक भी गूँजता रहे, तो फिर प्रार्थना उतनी ही आवश्यक है जितना कि साँस लेना आवश्यक है।

‘जब मैं प्रार्थना करता हूँ परमेश्वर मेरी नहीं सुनता है’

इस झूठ को प्रकट करने से पहले, हमें स्मरण करना चाहिए कि वास्तव में अपश्चात्तापी पाप हमारी प्रार्थनाओं के लिए परमेश्वर के कान बन्द करता है। जैसा कि भजनकार कहता है, “यदि मैं अपने मन में अधर्म को सँजोए रखता, तो प्रभु मेरी न सुनता” (भजन संहिता 66:18)। ऐसी स्थिति में, “परमेश्वर मेरी नहीं सुनता है” जो कि एक झूठ नहीं है, परन्तु एक कठोर सच्चाई है, जिसका पश्चाताप के माध्यम से दया द्वारा उपाय किया जा सकता है।

तथापि, हम में से कई लोग प्रार्थना में परमेश्वर की अनुपस्थिति का अनुभव इसलिए करते हैं, क्योंकि हम ऐसे संघर्ष करने वाले सन्त हैं, जो शरीर द्वारा भीतर और दुष्टात्माओं बाहर से सताए हुए हैं, और हम बहुत सरलता से भूल जाते हैं कि ख्रीष्टियों के पास यह सौभाग्य क्यों है कि हम परमेश्वर को “हे (प्रभु), प्रार्थना को सुनने वाले” (भजन संहिता 65:2) कहकर सम्बोधित कर सकते हैं? और वह सौभाग्य हमारा क्यों है? क्योंकि, यीशु अपने चेलों को बताता है, नई वाचा के युग में, “तुम मेरे नाम से माँगोगे” (यूहन्ना 16:26)।

यदि हम अपने आप का द्वार पर खटखटाते, और अपने नाम तथा अपने गुणों के आधार पर सुने जाने कि माँग करते, तो हमारे पास यह सन्देह करने का प्रत्येक कारण होगा कि परमेश्वर सुनेगा और हमारे लिए द्वार खोलेगा। परन्तु हम अपने नाम से प्रार्थना नहीं करते हैं। हम पिता के प्रिय, उस यीशु के नाम से प्रार्थना करते हैं, जो हमें पिता के पास लाने के लिए ही इस संसार में आया (यूहन्ना 16:27; 17:3, 6)। यदि ख्रीष्ट में हैं, तो हमारे स्वर पिता से उतने ही दूर हैं जितना पुत्र उसके दाहिने हाथ से दूर हैं (यूहन्ना 16:28; इब्रानियों 4:14–16)।

यह सच है, हम कभी-कभी अनुभव कर सकते हैं कि हमारा परमेश्वर बहुत ही दूर है, और हमारी कराहट की ध्वनि से हटा हुआ है। हम महीनों या वर्षों तक उस सन्नाटें में बैठे रह सकते हैं, जब बहकाने वाला हम से कहता है कि हमारे पिता के कान अन्तत: हमारे लिए बन्द हो गये हैं। परन्तु फिर भी, हम मीका नबी के साथ कह सकते हैं, “परन्तु मैं तो यहोवा की ओर ही ताकूँगा, और उद्धारकर्ता परमेश्वर की बाट जोहता रहूँगा और मेरा परमेश्वर मेरी सुनेगा ” (मीका 7:7)। 

प्रत्येक झूठ उन चार शब्दों की भव्य सच्चाई के सामने दूर हो जाता है कि मेरा परमेश्वर मुझे सुनेगा । यदि परमेश्वर स्वयं हमारी विनतियों की ओर अपना कान लगाएगा, और हमारे बोझों की ओर अपना कन्धा झुकाएगा, तो फिर कोई भी रूकावट हमें उससे दूर नहीं रख सकती है। व्यस्तता, संकट, और आत्मनिर्भरता अभी भी सुझाव दे सकते हैं कि हमें कुछ और करना चाहिए, परन्तु हम जानेंगे कि हमें क्या कहना चाहिए: “मेरा परमेश्वर— मेरा महिमामय, संतोषप्रद, बोझ-सहने वाला परमेश्वर— मेरी सुनेगा। मैं प्रार्थना कर रहा हूँ।”

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स्कॉट हबर्ड
स्कॉट हबर्ड

स्कॉट हबर्ड desiringGod.org के एक सम्पादक, ऑल पीपल्स चर्च के एक पास्टर, और
बैतलहम कॉलेज ऐण्ड सेमिनरी के एक स्नातक हैं। वह और उसकी पत्नी बेथानी मिनियापोलिस में अपने दो बेटों के साथ रहते हैं।

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