पौलुस कहता है कि ख्रीष्ट महिमा पाने और आश्चर्य का कारण होने के लिए ही आ रहा है। इसी कारण से वह आ रहा है।
लोग इस शिक्षा से ठोकर खाते हैं कि परमेश्वर अपनी महिमा को ऊँचा करता है और चाहता है कि उसके लोग उसकी स्तुति करें, क्योंकि बाइबल हमें सिखाती है कि हमें ऐसा नहीं बनना चाहिए। उदाहरण के लिए, बाइबल कहती है कि प्रेम “अपनी भलाई नहीं चाहता” (1 कुरिन्थियों 13:5)।
यह कैसे सम्भव है कि परमेश्वर प्रेमी होने के साथ-साथ अपनी ही महिमा और प्रशंसा और आनन्द की “चाह रखता है”? परमेश्वर हमारे लिए कैसे हो सकता है यदि वह पूर्णतः अपने ही लिए है?
मेरा प्रस्तावित उत्तर यह है: क्योंकि परमेश्वर एक सर्व-महिमामय, आत्म-निर्भर प्राणी के रूप में अद्वितीय है, तो यदि उसे हमारे लिए होना है तो उसे स्वयं के लिए होना होगा। नम्रता के जो नियम सृष्टि के लिए उपयुक्त हैं, उनको उसी रीति से सृष्टिकर्ता पर लागू नहीं किया जा सकता है।
यदि असीम आनन्द के स्रोत के लिए परमेश्वर स्वयं से फिर जाए, तो वह परमेश्वर होने से रुक जाएगा। वह अपनी महिमा के असीम मूल्य को नकार देगा। इसका अर्थ यह निकलता कि परमेश्वर से बाहर भी कुछ और अधिक मूल्यवान वस्तु है। ऐसा करने से तो वह मूर्तिपूजक ठहरेगा।
इससे हमें कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि हम और कहाँ जा सकते हैं जब हमारा परमेश्वर ही अधर्मी हो गया है? हम सम्पूर्ण सृष्टि में खराई की चट्टान कहाँ पाएँगे जब परमेश्वर के हृदय ने उच्चतम मूल्य की वस्तु को उच्चतम मूल्य देना बन्द कर दिया? हम आराधना करने के लिए कहाँ जाएँ जब स्वयं परमेश्वर ने इस बात का दावा करना छोड़ दिया है कि वह असीम रूप से मूल्यवान और सुन्दर है?
नहीं, परमेश्वर से यह माँग करने के द्वारा कि वह परमेश्वर होने से रुक जाए, हम परमेश्वर द्वारा स्वयं को ऊँचा किए जाने को प्रेम में परिवर्तित नहीं करते हैं।
इसके विपरीत, हमें यह देखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर ठीक इसी कारण से प्रेम है क्योंकि वह अपने लोगों के हृदयों में अपने नाम की स्तुति की इच्छा रखता है। उसकी महानता के लिए हमारी स्तुति ही हमारे आनन्द और उसकी महानता का चरमोत्कर्ष है।