परमेश्वर के वचन में कैसे आनन्दित हों

ख्रीष्टीयता को कभी भी केवल माँगों और संकल्पों और इच्छाशक्ति के विषय तक ही घटाकर न प्रस्तुत करें। यह तो इस विषय से सम्बन्धित है कि हमें क्या प्रिय लगता है, हम किसमें आनन्दित होते हैं, हमें किसका स्वाद भाता है।

जब यीशु संसार में आया तो मानवता इस आधार पर विभाजित हो गयी कि लोग किससे प्रेम करते थे। “ज्योति जगत में आ चुकी है, परन्तु मनुष्यों ने ज्योति की अपेक्षा अंधकार को अधिक प्रिय जाना ” (यूहन्ना 3:19)। धर्मी और दुष्ट इस बात के द्वारा पृथक किये जाते हैं कि वे किस में आनन्द पाते हैं — यीशु में, परमेश्वर के प्रकाशन में, या संसार के मार्ग में।

सम्भवतः कोई प्रश्न कर सकता है कि: मैं कैसे परमेश्वर के वचन में आनन्द प्राप्त करना आरम्भ कर सकता हूँ? मेरे पास इसके दो उत्तर हैं:

1) अपने हृदय की जीभ के लिए नयी स्वादकलिकाओं हेतु प्रार्थना करें;

2) अपने लोगों के लिए परमेश्वर की विस्मयकारी प्रतिज्ञाओं पर मनन करें।

जिस भजनकार ने कहा था, “तेरे वचन मुझको कितने मीठे लगते हैं” (भजन 119:103) उसी ने पहले कहा था, “मेरी आँखे खोल दे कि मैं तेरी व्यवस्था की अद्भुत बातें देख सकूँ” (भजन 119:18)। उसने यह प्रार्थना की क्योंकि महिमा को देखने के लिए आत्मिक आँखों का होना, या फिर हृदय की जीभ पर पवित्र स्वादकलिकाओं का होना तो परमेश्वर की ओर से उपहार ही है। कोई भी स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर और उसकी बुद्धि के लिए भूखा नहीं होता है, और न ही उसमें आनन्दित होता है।

परन्तु जब आप प्रार्थना कर चुके होते हैं, वास्तव में तो जब आप प्रार्थना कर रहे होते हैं, तो उन लाभों पर मनन करें जिनकी प्रतिज्ञा परमेश्वर ने अपने लोगों से की है और उस आनन्द पर भी मनन करें कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर अभी तथा सर्वदा के लिए आपका सहायक है। भजन 1:3-4 कहता है कि वह मनुष्य जो परमेश्वर के वचन पर मनन करता है “उस वृक्ष के समान है जो जल-धाराओं के किनारे लगाया गया है, और अपनी ऋतु में फलता है, और जिसके पत्ते कभी मुर्झाते नहीं: इसलिए जो कुछ वह मनुष्य करता है उसमें वह सफल होता है। दुष्ट ऐसे नहीं होते, वे भूसी के समान होते हैं जिसे पवन उड़ा ले जाता है।”

ऐसी पुस्तक को पढ़ने के लिए कौन आनन्दित नहीं होगा, जिसके पढ़ने के द्वारा कोई जन अनुपयोगी भूसी से लबानोन के शक्तिशाली देवदारों में, तथा एक सूखे रेगिस्तान से हरे-भरे उद्यान में परिवर्तित कर दिया जाता है? अपने मन के भीतर कोई भी जन भूसी — मूलहीन, भारहीन, अनुपयोगी — नहीं बनना चाहता है। हम सभी वास्तविकता की किसी गहरी नदी से सामर्थ्य लेना चाहते हैं और फलदायी तथा उपयोगी लोग बनना चाहते हैं।

वास्तविकता की वह नदी तो परमेश्वर का वचन है, और सभी महान पवित्र लोग इसी के द्वारा महान बनाए गए हैं।

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जॉन पाइपर
जॉन पाइपर

जॉन पाइपर (@जॉन पाइपर) desiringGod.org के संस्थापक और शिक्षक हैं और बेथलेहम कॉलेज और सेमिनरी के चाँसलर हैं। 33 वर्षों तक, उन्होंने बेथलहम बैपटिस्ट चर्च, मिनियापोलिस, मिनेसोटा में एक पास्टर के रूप में सेवा की। वह 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं, जिसमें डिज़ायरिंग गॉड: मेडिटेशन ऑफ ए क्रिश्चियन हेडोनिस्ट और हाल ही में प्रोविडेन्स सम्मिलित हैं।

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