“जीवन की रोटी मैं हूँ: जो मेरे पास आता है, भूखा न होगा, और वह जो मुझ पर विश्वास करता है, कभी प्यासा न होगा”। (यूहन्ना 6:35)
यह स्थल इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि यीशु पर विश्वास करने का अर्थ है कि जो कुछ भी यीशु में है उसी को हमें खाना है और पीना है। यह बात तो यहाँ तक भी कह रही है कि हमारे प्राण-की-प्यास यीशु से सन्तुष्ट होती है, जिससे कि हमें इसके बाद कभी प्यास नहीं लगेगी।
वह तो हमारी सन्तुष्टि के लिए हमारी खोज का अन्त है। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है, और उससे उत्तम भी कुछ नहीं है।
जब हम यीशु पर उस प्रकार का भरोसा रखते हैं जैसा कि यूहन्ना हमारे लिए चाहता है, तब यीशु की उपस्थिति और प्रतिज्ञा इतनी सन्तोषजनक होती है कि पाप के आकर्षक सुख हम पर हावी नहीं होते हैं (रोमियों 6:14 देखें)। यह इस बात को समझाता है कि यीशु में ऐसा विश्वास क्यों पाप की सामर्थ्य को निष्प्रभावी और आज्ञाकारिता को सक्षम बनाता है।
यूहन्ना 4:14 उसी दिशा की ओर संकेत करता है: “जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा,अनन्तकाल तक प्यासा न होगा, परन्तु वह जल जो मैं उसे दूँगा उसमें अनन्त जीवन के लिए उमण्डने वाला जल का सोता बन जाएगा।” यूहन्ना 6:35 के अनुरूप, यहाँ बचाने वाले विश्वास को जल पीने के रूप में कहा गया है जो कि प्राण की गहरी अभिलाषाओं को सन्तुष्ट करता है। और वह सन्तुष्टि उमड़ते हुए कुएँ के समान फलदायक हो जाती है।
यूहन्ना 7:37-38 में भी ऐसा ही है: “यीशु खड़ा हुआ, और पुकार कर कहने लगा, ‘यदि कोई प्यासा हो तो मेरे पास आए और पीए। और जो मुझ पर विश्वास करता है, जैसा कि पवित्रशास्त्र में कहा गया है, “उसके हृदय में से जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी।”’”
विश्वास के द्वारा, यीशु हम में सन्तुष्ट जीवन का असमाप्य झरना बन जाता है जो सर्वदा के लिए रहता है और हमें स्वर्ग की ओर ले जाता है, और उस मार्ग पर वह हमें अन्य सन्तुष्टि के पापमय भ्रमों से स्वतन्त्र करता है। वह हमारे पास अपना आत्मा भेजने के द्वारा ऐसा करता है (यूहन्ना 7:38-39)।