परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया जिससे कि संसार परमेश्वर को प्रतिबिम्बित करने वाले लोगों से भर जाए। परमेश्वर के अनेकों स्वरूपों से। परमेश्वर की सात अरब प्रतिमाएँ। जिससे कि कोई भी सृष्टि के उद्देश्य को जानने से चूक न जाए।
कोई भी (जब तक कि वह पूर्णत: दृष्टिहीन न हो) मानवता के उद्देश्य को देखने से चूक नहीं सकता है, अर्थात् परमेश्वर — को जानना, प्रेम करना, और परमेश्वर को प्रकट करना। स्वर्गदूत यशायाह 6:3 में पुकारते हैं, “सेनाओं का यहोवा पवित्र, पवित्र, पवित्र है; सम्पूर्ण पृथ्वी उसके तेज से भरपूर हुई है!” यह अरबों स्वरूप धारक मनुष्यों से भरी हुई है। भव्य है किन्तु चौपट है।
किन्तु केवल मनुष्य ही नहीं। वरन् प्रकृति भी! हमारे रहने के लिए इतना विस्मयकारी संसार क्यों है? इतना विशाल जगत क्यों है?
मैंने एक बार पढ़ा था कि जगत में सम्पूर्ण काल के मनुष्यों द्वारा बोले गए जितने शब्द और ध्वनियाँ हैं, उससे कहीं अधिक तारे हैं। इतने अधिक तारे क्यों हैं? इतने विशाल? इतने उज्ज्वल? इतनी अकल्पनीय दूरी? बाइबल इसके विषय में बड़ी स्पष्ट है: “आकाश परमेश्वर की महिमा का वर्णन करता है” (भजन 19:1)।
यदि कोई पूछे कि, “यदि पृथ्वी ही एकमात्र बसने योग्य ग्रह है और एकमात्र मनुष्य ही तारों के मध्य में बसने योग्य तर्कसंगत निवासी है, तो इतना विशाल और खाली विश्व क्यों?” इस प्रश्न का उत्तर यह है: यह सब हमारे विषय में नहीं है। किन्तु यह तो परमेश्वर के विषय में है। और यह तो न्यूनोक्ति ही है। वह तो अत्यधिक महिमामय है। सामर्थ्य में महान है। व्यापकता में महान है। बड़ा ही वैभवशाली है। सभी आकाशगंगाओं को एक साथ रख कर देखने की तुलना से भी अधिक। एक बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा था कि, संसार एक मूँगफली के समान है जिसे परमेश्वर अपनी जेब में रखकर घूमता है।
परमेश्वर ने हमें उसे जानने और उससे प्रेम करने और उसे प्रकट करने के लिए बनाया है। और इसके बाद उसने हमें संकेत दिया है कि वह कैसा वृहद और विशाल है: और उसने यह संकेत हमें सम्पूर्ण सृष्टि के द्वारा दिया है।