हम दुःख को केवल इसलिए नहीं चुनते हैं क्योंकि हमें इसके लिए निर्देश दिया गया है, परन्तु इस कारण से क्योंकि जिस महान् जन ने हमसे कहा है कि हमें ऐसा करना है, वह इसका वर्णन अनन्त आनन्द के पथ के रूप में करता है।
वह हमें दुःख उठाने की आज्ञाकारिता हेतु इसलिए नहीं बुलाता है कि कर्तव्य के प्रति हमारी भक्ति की सामर्थ्य, या हमारे नैतिक संकल्प की शक्ति, या हमारी पीड़ा सहने की क्षमता प्रदर्शित की जाए, परन्तु इसके विपरीत, वह हमें बच्चों के समान विश्वास में, उसकी सर्व-सन्तुष्टिदायक प्रतिज्ञाओं की बहुमूल्यता को प्रकट करने हेतु बुलाता है — अर्थात् उन सब बातों की पूर्ति के रूप में उसकी स्वयं की महिमा की सर्व-सन्तुष्टिदायक महानता और सुन्दरता को प्रकट करने हेतु बुलाता है।
मूसा “ने पाप के क्षणिक सुख भोगने की अपेक्षा, परमेश्वर की प्रजा के साथ दुःख भोगना ही अच्छा समझा . . . क्योंकि वह प्रतिफल पाने की आस लगाए था” (इब्रानियों 11:25-26)। इसलिए, उसकी आज्ञाकारिता ने उस पुरस्कार की महिमा की — अर्थात् जो कुछ भी परमेश्वर उसके लिए ख्रीष्ट में है — न कि दुःख उठाने के संकल्प की।
यही ख्रीष्टीय सुखवाद का सारतत्त्व है। दुःख उठाने के माध्यम से आनन्द की खोज में हम अपने आनन्द के स्रोत के सर्व-सन्तुष्टिदायक मूल्य की बड़ाई करते हैं। परमेश्वर स्वयं हमारी पीड़ा की सुरंग के अन्त में प्रकाश बनकर चमकता है।
यदि हम यह संचार नहीं करते हैं कि वह दुःख में हमारे आनन्द का लक्ष्य और आधार है, तब हमारे दुःख का अर्थ ही खो जाएगा।
इसका अर्थ यह है कि: परमेश्वर पुरुस्कार है। परमेश्वर पुरुस्कार है। स्वयं परमेश्वर ही पुरुस्कार है। यही हमारे दुःखों का अर्थ है।
मनुष्य का मुख्य उद्देश्य है परमेश्वर को महिमा देना। और अन्य परिस्थितियों से अधिक यह दुःख के समय में सत्य है कि परमेश्वर हम में तब सर्वाधिक महिमान्वित होता है, जब हम उस में सर्वाधिक सन्तुष्ट होते हैं।