“हे नारी! देख, तेरा पुत्र!” (यूहन्ना 19:26) 

क्रूस पर यह यीशु की तीसरी वाणी है। क्रूस पर यीशु अपनी पीड़ा और कष्ट के मध्य मरियम के प्रति अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत था। वो अपने प्राण, सुरक्षा या फिर क्रूस की मृत्यु से बचने के लिए मरियम से या अपने चेलों से निवेदन नहीं कर रहा है, परन्तु एक पुत्र होने के कारण मरियम की चिन्ता करते हुए इस कथन या वाणी को बोलता है। यीशु के इस वाणी से हम इन दो बातों को देख सकते हैं। 

1. अपनी पीड़ा के मध्य में, यीशु अपनी माता के प्रति अपने दायित्व को पूरा करता है – सामान्यतः जब हम एक अच्छी परिस्थिति में होते हैं तो हम अपने दायित्व को आनन्द के साथ पूरा कर लेते हैं। विपरीत अवस्था में हम क्रोधित, निराश और दुखी होते हैं और अपने दायित्व से भागने लगते हैं। परन्तु यीशु के साथ ऐसा नहीं था। उसका चेला यहूदा इस्करियोती उसको पकड़वाता है और उसके पश्चात यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति के मध्य हम यीशु को दुखी और विलाप करते हुए नहीं देखते हैं। इसके विपरीत, वह अपनी माता के प्रति अपने प्रेम को दर्शाता है। वह अपनी माता को कहता है कि अब से यूहन्ना उसका पुत्र है। एक पुत्र होने के दायित्व के प्रति यीशु सचेत था और अपने पीड़ा के मध्य वह इसे पूरा करता है।  

2. अपनी पीड़ा के मध्य में, यीशु एक आत्मिक सम्बन्ध की स्थापना करता है – न केवल यह यीशु के दायित्व को दर्शाता है, परन्तु यहाँ पर हम एक नए सम्बन्ध का निर्माण होते हुए देखते हैं। यीशु अपनी माता से कहता है कि अब से यूहन्ना उसका पुत्र है और यूहन्ना से कहता है कि अब से मरियम उसकी माता है। यह सम्बन्ध किसी लाभ के लिए नहीं स्थापित किया गया था और न ही इसका आधार कोई मानवीय योजना थी। इसके द्वारा यीशु यह दर्शाना चाह रहा था कि उस पर विश्वास करने के द्वारा यह एक आत्मिक परिवार और घराने के सदस्य बन गए हैं जिसका आधार यीशु है। यूहन्ना 1:12 में हम पढ़ते हैं कि जितनों ने उस पर विश्वास किया वे सब उसकी सन्तान बन गए अर्थात एक आत्मिक घराने के हो गए हैं और इसका आधार क्रूस पर यीशु का कार्य है। 

अतः हम यह देखते हैं कि विश्वासियों के लिए आपसी सम्बन्ध का आधार यीशु होना चाहिए। इस आत्मिक सम्बन्ध के लिए हमें यीशु को धन्यवाद देना चाहिए और उसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।       

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