
सताव हमारा अन्त नहीं है।
बहुत सारे ख्रीष्टीय हुए हैं, जिनको केवल इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया, क्योंकि वे
ख्रीष्टीय जीवन में विश्वास और पश्चात्ताप एक ऐसा कार्य है जहां से हम अपने ख्रीष्टीय जीवन का आरम्भ करते हैं। ये दोनों ख्रीष्टीय जीवन का मूल आधार है। इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर अपने पवित्र आत्मा के द्वारा हमारी सहायता करता है। तो आइए लेख के द्वारा हम देखें कि पवित्रशास्त्र पश्चात्ताप और विश्वास के विषय में क्या कहता है और कैसे ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
विश्वास क्या है
विश्वास का तात्पर्य सम्पूर्णता से सत्य पर भरोसा करना है। विश्वास वह क्रिया है जिसमें हम सत्य को अपने मुख से अंगीकार करते हैं और अपने हृदय व मस्तिष्क से स्वीकार करते हैं तथा उस सत्य को अपने जीवनों और कार्यों के द्वारा प्रदर्शित करते हैं। विश्वास को व्यवहारिक रूप से कुर्सी के उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं – मैं कह सकता हूं कि मैं “विश्वास” करता हूं कि कुर्सी मेरे भार को ले सकती है, परन्तु जब तक मैं उस पर बैठ नहीं जाता है, तब मैं वास्तव में कुर्सी पर विश्वास नहीं करता।
केवल विश्वास करना की पर्याप्त नहीं है परन्तु किस बात पर विश्वास करते हैं अर्थात् विश्वास की विषयवस्तु क्या है। यदि हमारे विश्वास की विषयवस्तु त्रुटि पूर्ण होगी तो उसका परिणाम भी त्रुटिपूर्ण और विनाशकारी होगा। विश्वास की सही विषयवस्तु एक विश्वासी को सकारात्मक, जीवनदायक, सुखद परिणाम की ओर ले जाएगी। इसलिए हमारे विश्वास की विषयवस्तु का सही होना आवश्यक है। तो आइए हमें परमेश्वर के वचन बाइबल के आधार पर देखें कि हमारे विश्वास की विषयवस्तु क्या होनी चाहिए –
बाइबल आधारित विश्वास (सुसमाचार) हमें पश्चात्ताप की बुलाहट देता है।
बाइबल आधारित विश्वास की विषयवस्तु यीशु ख्रीष्ट के सिद्ध जीवन, त्यागपूर्ण बलिदान, महिमामय पुनरुत्थान पर आधारित है। हज़ारो वर्षों से अनेकों ख्रीष्टीय लोग ने इस सत्य पर विश्वास किया है और पापों की क्षमा और अनन्त जीवन को प्राप्त किया है। इसलिए हमें और आपको जांचना चाहिए कि किन बातों पर और क्या विश्वास करते हैं। हमें यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर पिता ने अपने एकलौते पुत्र यीशु ख्रीष्ट को हमारे लिए संसार में भेज दिया (यूहन्ना 3:16)। यीशु ख्रीष्ट संसार में देहधारण करके आया, हमारे लिए सिद्ध जीवन जीया, और हमारे पापों की क्षमा के लिए क्रूस पर बलिदान हो गया, मारा गया, गाड़ा गया और तीसरे दिन मृतकों में से जी भी उठा। क्योंकि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उसे मृतकों में से जिला उठाया जिससे वह लोगों के सामने परमेश्वर का पुत्र घोषित हुआ। तीसरे दिन उसका जी उठना इस बात का संकेत है कि हमारे उद्धार के लिए उसका बलिदान परमेश्वर पिता ने स्वीकार किया।
बाइबल आधारित सच्चे विश्वास का परिणाम पश्चात्ताप होता है। सच्चा विश्वास हमारे जीवन में हमारे पापों के प्रति आत्मिक दुख व पश्चाताप को उत्पन्न करता है जिसका परिणाम उद्धार होता है (2 कुरिन्थियों 7:10)। बाइबल आधारित विश्वास (सुसमाचार) हमें पश्चात्ताप की बुलाहट देता है। तो आइए हम देखें कि पश्चात्ताप का अर्थ क्या है।
पश्चात्ताप क्या है
व्येन ग्रूडेम इस प्रकार पश्चात्ताप को परिभाषित करते हैं, “सच्चा पश्चात्ताप में पाप के प्रति दुखी होना, पाप का इनकार करना तथा इसको त्यागने के लिए एक सच्चा समर्पण है और ख्रीष्ट की आज्ञाकारिता में चलना है।”
पश्चात्ताप वह प्रकिया है जिसमें हम पापों से फिरकर प्रभु यीशु ख्रीष्ट की ओर मुड़ते हैं। जब परमेश्वर पवित्र आत्मा हमारे पापपूर्ण मृतक हृदय को जीवित करता है हमें नया हृदय प्रदान करता है और हमें इस योग्य करता है कि हम विश्वास करें, तो विश्वास के पश्चात दूसरा कदम पश्चात्ताप होता है। जिसमें हम अपनी वास्तविक पापपूर्ण स्थिति को पहचानते हुए अपने पापों का अंगीकार करते हैं। उन पापों और पापपूर्ण जीवन शैली से विमुख होकर उद्धारकर्ता यीशु ख्रीष्ट के सम्मुख आते हैं ताकि हमारे पाप क्षमा किए जाएं और अनन्त जीवन प्राप्त हो तथा परमेश्वर के साथ हमारी पुनः संगति हो सके।
पश्चात्ताप इसलिए आवश्यक है क्योंकि यीशु ख्रीष्ट की सेवा का उद्देश्य यह था कि लोग मन फिराएं और पश्चात्ताप करें, इसलिए यीशु ख्रीष्ट लूका 5:32 में कहते हैं, “मैं धर्मियों को नहीं परन्तु पापियों को पश्चात्ताप करने के लिए बुलाने आया हूं।” यीशु ख्रीष्ट के शिष्य भी लोगों को क्षमा प्राप्त करने के लिए उन्हें पश्चात्ताप करने के लिए आज्ञा देता है (प्रेरितों के काम 2:38, 3:19)। इसलिए हमारे लिए पश्चात्ताप महत्वपूर्ण है। विश्वास और पश्चात्ताप हमें पवित्रता, परिपक्वता, और आत्मिक उन्नत्ति की ओर ले जाते हैं इसलिए हम ख्रीष्टिय लोगों को पाप से लड़ते हुए पश्चात्ताप करते रहना चाहिए।
पश्चात्ताप और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
सच्चा विश्वास सच्चे पश्चाताप को उत्पन्न करता है। विश्वास और पश्चात्ताप दोनों एक साथ घटित होते हैं। जब एक व्यक्ति ख्रीष्ट के द्वारा उद्धार को प्राप्त करता है तो ऐसा नहीं होता है कि वह पहले अपने पाप से फिरे और इसके पश्चात ख्रीष्ट पर भरोसा करे। परन्तु वह पहले ख्रीष्ट पर विश्वास करता है और इसके पश्चात वह अपने पापों से फिरता है। ये दोनों एक साथ क्रमशः घटित होते हैं। इसलिए हम इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलू कहते हैं।
सच्चा विश्वास और सच्चा पश्चात्ताप भले कार्य और आत्मिक फल को उत्पन्न करते हैं। विश्वास और पश्चात्ताप हमारे व्यवहारिक जीवन में आने वाला परिवर्तन है। इसलिए यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला लोगों को “पश्चात्ताप के योग्य फल लाने” के बुलाता है (मत्ती 3:8)।
हमें अपने विश्वास को थामे रहने और निरन्तर पश्चात्ताप करने की आवश्यकता है क्योंकि हम इस पतित संसार में जी रहे हैं जहां पर शरीर, शैतान, संसार प्रतिदिन हमें विश्वास से विमुख करने और पाप रूपी विनाश के कुण्ड में ढकेलने के लिए क्रियाशील है, इसलिए प्रिय भाई बहनों मैं आपको उत्साहित करना चाहूंगा कि प्रत्येक बाधा और उलछाने वाले पाप को दूर करके विश्वास रूपि दौड़ को जिसमें हमें दौड़ना है धीरज से दौड़े और विश्वास के कर्ता और सिद्ध करने वाले यीशु की ओर अपनी दृष्टि लगाए रहें (इब्रानियों 12:1-2)।
बहुत सारे ख्रीष्टीय हुए हैं, जिनको केवल इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया, क्योंकि वे
“भले ही तुम्हें अभी कुछ समय के लिए विभिन्न परीक्षाओं द्वारा दुख उठाना पड़ा हो कि
हम सब के सामने जो प्रश्न है, वह यह है कि: क्या हम उन “बहुतों” में
यदि मैं आपसे पूछूँ कि “सताव के मध्य में प्रार्थना की क्या भूमिका है?” आपका क्या
क्या आपने कभी सोचा है कि उस समय परमेश्वर क्या कर रहा होता है जब आपको
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