परमेश्वर करुणा और सत्य से भरपूर है।
जब मैं इन सत्यों पर विचार करता हूँ तो मेरे मन में दो चित्र उभर कर आते हैं:
- परमेश्वर का हृदय समाप्त न होने वाले पानी के एक ऐसे सोते के समान है जिसके स्रोत से प्रेम और सत्य उमड़ते है। और यह सोता अनेक शताब्दियों तक निरन्तर बहता रहता है।
- या परमेश्वर का हृदय एक ऐसे ज्वालामुखी के समान है जो प्रेम से इतना भरा हुआ है कि इसके विस्फोट से पर्वत की चोटी उड़ जाती है और वर्षों के लिए उससे प्रेम और सत्य का लावा बहता रहता है।
जब परमेश्वर “भरपूर” शब्द का उपयोग करता है — “करुणा तथा सत्य से भरपूर” — वह चाहता है कि हम समझें और अनुभव करें कि उसके प्रेम के संसाधन सीमित नहीं हैं। आप इस पहाड़ के सोते से प्रति दिन, वर्षों के लिए, पीढ़ियों के लिए पी सकते हैं, और यह कभी नहीं सूखता है।
आप यह कहने का दुस्साहस भी कर सकते हैं कि परमेश्वर एक ऐसी सरकार के समान है जो आवश्यकता पड़ने पर मुद्रा छापती है। यह मुद्रा समाप्त नहीं होती है, है न? किन्तु यहाँ एक भिन्नता पाई जाती है। परमेश्वर के पास सुनहरे प्रेम का एक असीम कोष है जिससे कि वह जितनी चाहे उतनी मुद्रा छाप सकता है। सरकार तो एक स्वप्न के संसार ही में है। परमेश्वर वास्तव में अपने ईश्वरत्व के असीम संसाधनों पर निर्भर होता है।
परमेश्वर का परम अस्तित्व, सम्प्रभु स्वतन्त्रता, और सर्वसामर्थ्यता (omnipotence) वह ज्वालामुखी रूपी परिपूर्णता है जो प्रेम के उमड़ने में विस्फोटित होता है। परमेश्वर के महान् प्रताप का अर्थ है कि उसको उसके स्वयं में किसी अपूर्णता को पूरा करने के लिए हमारी आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत उसकी असीम आत्म-निर्भरता हम पापियों के ऊपर प्रेम के रूप में उमड़ पड़ती है, जिनको उसकी और यीशु में होकर स्वयं उसके उपहार की आवश्यकता है।
निश्चित रूप से हम उसके प्रेम पर निर्भर हो सकते हैं क्योंकि हम उसके अस्तित्व की पूर्णता, उसकी स्वतन्त्रता की सम्प्रभुता और उसकी सामर्थ्य की असीमितता पर विश्वास करते हैं।