जिस दिन यीशु की मृत्यु हुई उससे एक रात पूर्व यीशु ने यही प्रार्थना की थी। उस बात में आनन्द मनाने की कल्पना कीजिए जिसमें ऐसा आनन्द पाया जाता है जो सदा के लिए अपार ऊर्जा से और मनोभाव से भरपूर है। अभी हमारा यह अनुभव नहीं है। इस संसार में तीन बातें हैं जो हमारी इस पूर्ण सन्तुष्टि में बाधा बनती हैं।
पहली बात यह है कि इस सृजित संसार में ऐसी कोई भी मूल्यवान वस्तु नहीं है जो हमारे हृदयों की गहरी अभिलाषाओं को सच में पूरा कर सकती है।
दूसरी बात यह है कि उस उत्तम धन का उसके सर्वोच्च मूल्य तक आनन्द लेने के लिए हममें सामर्थ्य नहीं है।
और उस पूर्ण सन्तुष्टि के मार्ग में तीसरी बाधा यह है कि यहाँ के हमारे आनन्द समाप्त हो जाते हैं। कुछ भी सर्वदा बना नहीं रहता है। यदि यूहन्ना 17:26 में यीशु की प्रार्थना और उद्देश्य सच हो जाएँ तो यह सब कुछ परिवर्तित हो जाएगा। उसने यह प्रार्थना की, “जिस प्रेम से तू [पिता] ने मुझ से प्रेम किया वह उनमें रहे।” परमेश्वर का उसके पुत्र के लिए अत्यन्त-प्रसन्न होने वाला असीम प्रेम हममें पाया जाए!
यदि पुत्र में परमेश्वर का सुख, पुत्र में ही हमारा भी सुख बन जाए, तो हमारे सुख की विषयवस्तु अर्थात् यीशु, हमारे लिए कभी समाप्त न होने वाला व्यक्तिगत धन बन जाएगा। वह कभी भी उबाऊ, निराशाजनक या झुँझलाने वाला नहीं होगा।
परमेश्वर के पुत्र से विशाल किसी अन्य विशाल कोष की कल्पना नहीं की जा सकती है।
इसके साथ ही, कभी समाप्त न होने वाले इस धन का आनन्द लेने की हमारी योग्यता मानवीय निर्बलताओं के द्वारा सीमित नहीं रहेगी। हम परमेश्वर के पुत्र में ठीक वैसे ही आनन्दित होंगे जैसे परमेश्वर पिता अपने पुत्र में आनन्दित होता है। यही तो यीशु ने प्रार्थना की थी!
अपने पुत्र में परमेश्वर का हर्ष हम में होगा और हमारा यह हर्ष परमेश्वर के पुत्र में होगा। और यह कभी भी समाप्त नहीं होगा, क्योंकि न तो परमेश्वर पिता और न ही परमेश्वर पुत्र कभी समाप्त होंगे।
एक दूसरे के प्रति उनका प्रेम, उनके प्रति हमारा प्रेम होगा और इसलिए हमारा उनसे प्रेम करना न तो कभी समाप्त होगा और न ही कभी कम होगा।