मैंने पौलुस से तो यह अपेक्षा की होती कि वह इन दो शब्दों को एक दूसरे के स्थान में उपयोग करेगा। “प्रभु” को जिसका अर्थ स्वामी है, और “ख्रीष्ट” को जिसका अर्थ मसीहा है।
वह हमारे स्वतन्त्र किए जाने को यीशु के हमारे स्वामी होने के साथ जोड़ता है (“प्रभु का एक स्वतन्त्र जन”)। और वह हमारी नई दासता को यीशु के साथ हमारा मसीहा होने के साथ जोड़ता है (“ख्रीष्ट का दास”)। यह विचित्र लगता है क्योंकि मसीहा अपने लोगों को उनके बन्दीकर्ताओं से स्वतन्त्र कराने आया था; और स्वामीगण अपने दासों के जीवनों पर नियन्त्रण करते हैं।
वह इसे इस रीति से क्यों कहता है? दासता को (स्वतन्त्रता के स्थान पर) मसीहा के साथ, और स्वतन्त्रता को (दासता के स्थान पर) स्वामी के साथ क्यों जोड़ा जाए?
सुझाव: यह परिवर्तन हमारी नई स्वतन्त्रता पर दो प्रभाव डालता है और हमारे नए दासत्व पर दो प्रभाव डालता है।
एक ओर, हमें “प्रभु में स्वतन्त्र जन” कहकर, वह हमारी नई स्वतन्त्रता को सुरक्षित और सीमित करता है:
- उसका प्रभुत्व सारे अन्य प्रभुओं के ऊपर है; इसलिए हमारी स्वतन्त्रता निर्विरोधित है— पूर्ण रूप से सुरक्षित।
- परन्तु, अन्य प्रभुओं से स्वतन्त्र होने का अर्थ यह नहीं है कि हम ख्रीष्ट से स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर की दया से हमारी स्वतन्त्रता सीमित है। यीशु हमारा स्वामी है।
दूसरी ओर, हमें “ख्रीष्ट का दास” कहकर, वह हमारी दासता को सरल और मधुर बनाता है:
- मसीहा अपने लोगों को अधिकार में लेता है जिससे कि वह उन्हें बन्धुवाई से छुड़ाकर शान्ति के खुले स्थानों में ला सकता है। “उसकी प्रभुता की बढ़ती का और उसकी शान्ति का अन्त न होगा” (यशायाह 9:7)।
- और वह उन्हें सबसे मधुर आनन्द देने के लिए अपना बना लेता है। “मैं चट्टान के मधु से तुझे तृप्त करता” (भजन 81:16)। और वह चट्टान ख्रीष्ट है, जो मसीहा है।
इसलिए, हे ख्रीष्टीय, इस सत्य में आनन्दित हो: “जो दास की दशा में प्रभु में बुलाया गया है वह प्रभु में — स्वामी का— स्वतन्त्र जन है।” “इसी प्रकार जो स्वतन्त्रता की दशा में बुलाया गया है वह ख्रीष्ट का — छुड़ाने वाले तथा जीवन को मधुर करने वाले मसीहा का— दास है।”