परन्तु ध्यान रख कि अन्तिम दिनों में कठिन समय आएँगे। क्योंकि मनुष्य स्वार्थी, लोभी, अहंकारी, उद्दण्ड, परमेश्वर की निन्दा करने वाले, माता-पिता की आज्ञा न माननेवाले, अकृतज्ञ होंगे . . . (2 तीमुथियुस 3ः1-2)
ध्यान दीजिए कि अकृतज्ञता कैसे अहंकार, निन्दा और अनाज्ञाकारिता के साथ चलती है।
एक अन्य स्थान पर पौलुस कहता है, “न तो घृणित कार्य, न मूर्खतापूर्ण बातें, न ठट्ठे की बातें . . . वरन् धन्यवाद ही दिया जाए” (इफिसियों 5ः4)। इसलिए, ऐसा प्रतीत होता है कि कृतज्ञता तथा धन्यवादी होना, कुरूपता और हिंसा के विपरीत है।
इसका कारण यह है कि कृतज्ञता की भावना अहंकारी नहीं, वरन् नम्र भावना है। यह दूसरों को ऊँचा उठाती है न कि स्वयं को। और यह क्रोधित या कड़वी नहीं, वरन् प्रसन्नचित्त है। कटुता के साथ धन्यवादी होना तो पूर्ण रीति से विरोधाभास ही है।
धन्यवादी हृदय को खोलने की तथा कड़वाहट और कुरूपता और अनादर और हिंसा पर विजय पाने की कुँजी उस परमेश्वर पर दृढ़ विश्वास रखना है, जो कि सृष्टिकर्ता और सम्भालने वाला और प्रावधान कराने वाला और आशा का दाता है। यदि हम इस बात पर विश्वास न कि हमारे पास जो कुछ भी है और जो कुछ हमें पाने की आशा है, उसके लिए हम परमेश्वर के अत्यधिक ऋणी हैं, तब तो कृतज्ञता का स्रोत ही सूख गया है।
इसलिए, मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अन्तिम समय में हिंसा और ईश-निन्दा और गंदगी और अनाज्ञाकारिता का बढ़ना तो परमेश्वर-सम्बन्धी बात है। हमारी आधारभूत समस्या यह है कि हम जिन बातोंं के लिए सर्वाधिक निर्भर हैं उन्हीं के लिए हम कृतज्ञता की अनुभूति करने में विफल होते हैं।
जब परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता का उच्च सोता पर्वत की चोटी पर सूख जाता है, तो शीघ्र ही पर्वत के निचले स्थानों में पाए जाने वाले धन्यवाद के सभी कुण्ड सूखने लगते हैं। और जब कृतज्ञता जाती रहती है, तो स्वयं की सम्प्रभुता स्वयं के आनन्द के लिए अधिक से अधिक भ्रष्टाचार को अनदेखा करती है।
विनम्र कृतज्ञता की एक महान जागृति के लिए प्रार्थना करें।