उद्धार को एक घर के रूप में चित्रित करें जिस में आप रहते हैं।
यह आपको सुरक्षा प्रदान करता है। यह खाने पीने की वस्तुओं से भरा हुआ है जो सदा के लिए रहेगा। यह न कभी सड़ता है और न ही टूटता है। इसके झरोखें सर्व-संतोषजनक महिमा के परिदृश्यों पर खुलते हैं।
परमेश्वर ने इसका निर्माण अपना और अपने पुत्र की बड़ी हानि उठाकर किया है, और उसने इसे आपको सेंतमेत में और स्पष्ट रीति से दे दिया है।
इस “क्रय” के अनुबन्ध को एक “नई वाचा” कहा जाता है। इसका प्रतिबन्ध इस प्रकार से हैं: “यह घर आपका हो जाएगा और आपका बना रहेगा यदि आप इसे एक उपहार के रूप में स्वीकार करेंगे और पिता और पुत्र में आनन्दित होंगे जब वे आपके साथ घर में वास करते हैं। आप पराए देवताओं को आश्रय देकर या अपने हृदय को उससे हटाकर अन्य धन की ओर लगाकर परमेश्वर के घर की निन्दा नहीं कर सकते हैं, परन्तु आप इस घर में परमेश्वर की संगति में अपनी सन्तुष्टि को पाएँगे।”
क्या यह मूर्खता नहीं होगी यदि आप इस अनुबन्ध को हाँ कहें, और उसके बाद एक वकील को इस आशा में पैसे दें कि वह मासिक किश्त सहित एक ऋणमुक्ति योजना बनाए जिससे कि किसी न किसी रीति से खातों को संतुलित किए जाए और घर का पूरा मूल्य चुका दिया जाए?
अब आप घर को उपहार के रूप में नहीं, वरन् एक क्रय की गई वस्तु के रूप में मान रहे होंगे। परमेश्वर अब आपके लिए परोपकारी नहीं रहेगा। और आप माँगों की एक नई व्यवस्था के दास हो जाएँगे, जिसे तो उसने कभी भी आप पर डालने का सपना भी नहीं देखा था।
यदि अनुग्रह को सेंतमेत में होना है — जो कि अनुग्रह का यथार्थ् अर्थ है — तो हम इसे ऐसी बात के रूप में नहीं देख सकते हैं जिसका मूल्य चुकाया जा सकता है।