
संस्थापक और शिक्षक, desiringGod.org
आज सुबह जब 4:59 पर अलार्म बजा, एक पल के लिए मैंने मृत्यु की वास्तविकता और अपने पक्ष में केवल अपने जीवन को लेकर अत्यन्त पवित्र परमेश्वर के सम्मुख खड़े होने के विषय में विचार किया।
उस विचार से उत्पन्न भय को केवल इस वास्तविकता की चमक ने पीछे छोड़ दिया: यीशु ख्रीष्ट तो इसी क्षण के लिए मरा था।
और फिर वह पल जाता रहा।
मुझे यह तत्काल समझ में आया: कि जब किसी व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन होता है तो उसके साथ भी ऐसा ही अनुभव होता है। इसी रीति से ज्ञात होता है कि यीशु ख्रीष्ट वास्तविक है। इसी प्रकार से एक व्यक्ति ख्रीष्ट के प्रेम को संजोने लगता है। एकाएक पहली बार, वे अपने हृदय की आँखों से इस निर्विवादित वास्तविकता को देखने और अनुभव करने लगते हैं, कि उन्हें दोषी विवेक के साथ परमेश्वर से भेंट करनी होगी।
उस दर्शन का प्रभाव विनाशकारी होता है। इसके द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि एक मध्यस्थ ही केवल हमारी एकमात्र आशा है। हम अपने पक्ष में केवल अपने पापी जीवन को लेकर अकेले खड़े हैं और इस कारण पूर्णतः खोए हुए हैं। यदि परमेश्वर की उपस्थिति में अनन्त काल तक रहने की कोई आशा है, तो हमें एक छुड़ाने वाले, एक प्रतिस्थापन (Substitute), एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता होगी।
इस भयंकर संकट के समय पर, यीशु ख्रीष्ट के सुसमाचार के समान कुछ और नहीं चमकता है — “जिसने मुझ से प्रेम किया और मेरे लिए अपने आप को दे दिया” (गलातियों 2:20)।
वहाँ उसकी उपस्थिति से एक पल पूर्व ही मुझे न्याय के सर्वव्याप्त अन्धकार और भय को देखने की अनुमति प्राप्त हुई— जो कि एक ईश्वरविज्ञानीय अनुमान नहीं, केवल एक तर्कसंगत निष्कर्ष नहीं, केवल एक विचार नहीं, परन्तु आन्तरिक आँख से ज्ञात करने और अनुभूति और निश्चितता से भरी एक झलक थी।
हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है। वह बुराई को नहीं देखेगा। हम पूर्ण रूप से खोए हुए हैं। मेरा दोष उस पल में इतना बड़ा, इतना वास्तविक, इतना अविवादित था, कि वहाँ क्षमा याचना करने की कोई सम्भावना भी नहीं थी। वह पल एकाएक किन्तु सम्पूर्णता से, और असीम रीति से आशाहीन था।
इस क्षण में केवल यीशु ही है जो महत्व रखता है। हे ख्रीष्ट! हे ख्रीष्ट! क्या मेरा हृदय आभार के लहर को रोक सकता है?! हे परमेश्वर के उपहार, तू ही मेरी अत्यावश्यक और एकमात्र आवश्यकता है।