श्रुति लेख (Audio Transcript)
यह एक भाव विभोर करने वालाऔर बुद्धिमानी से भरा महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे एक माँ ने पूछा है। “पास्टर जॉन, कुछ दिन पहले ही प्रभु ने मुझे एक पुत्र दिया है। मैं अपने पुत्र के सम्बन्ध में दुख उठाने की अवधारणा के विषय में विचार कर रही हूँ। मेरे लिए उसे दुख उठाते हुए देखना बड़ा ही कठिन होगा, परन्तु मैं जानती हूँ कि वह एक दिन इसका सामना करेगा, और सम्भवतः अभी भी वह एक शिशु के रूप में दुख का सामना कर रहा है। अतः मेरा प्रश्न बड़ा ही सरल है: कि मैं किस रीति से अपने बच्चे का पालन पोषण करूँ तथा दुख सहने के लिए उसको कैसे तैयार करूँ? युवा अभिभावकों के लिए ऐसे कौन से व्यावहारिक ढंग हैं जिनके द्वारा वे अपने बच्चों को यह सिखाएँ कि दुख जीवन का एक भाग है और दुखों के मध्य में भी हम परमेश्वर पर भरोसा रख सकते हैं?
मैं अपने उत्तर को तीन चरणों में सारांशित करूँगा। 1) अपने पुत्र को उस महिमामय, व्यापक बाइबलीय विश्वदृष्टि की शिक्षा दें जो दुख उठाने को उसके सही सन्दर्भ में रखती है। इसलिए पहला चरण शिक्षा देना है। 2) उसे उपयुक्त दृढ़ता के साथ अनुशासित करें, और उससे आत्म-त्याग की अपेक्षा रखें। तो, पहली बात शिक्षा देना है, दूसरी बात अनुशासित करना है। 3) अपने स्वयं के कष्ट और दुख के समय, उसके सम्मुख भरोसा रखने और आनन्दित होने का एक आदर्श बनिए। तो, मुझे इन विचारों को एक-एक करके प्रस्तुत करने दीजिए और इन बातों को बाइबल से थोड़ा विस्तारपूर्वक समझाने दीजिए।
1) अपने पुत्र को उस महिमामय, व्यापक बाइबलीय विश्वदृष्टि की शिक्षा दें जो दुख उठाने को उसके सही सन्दर्भ में रखती है। और जब मैं सोचता हूँ कि इस विश्वदृष्टि में क्या पाया जाना चाहिए, तो छह बातें मेरे मन में आती हैं जिन्हें मैं प्रस्तुत करना चाहूँगा।
- जिस संसार की परमेश्वर ने सृष्टि की, उसको उसने अच्छा बनाया—जिसमें हमारे अपने हृदय और शरीर भी सम्मिलित हैं—परन्तु मानवजाति के पाप में गिरने के द्वारा यह टूट गया तथा निर्बल और असिद्ध हो गया। “सब ने पाप किया और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23)। सब कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। हम अपने बच्चों को यह बात सिखाते हैं। उनके सिद्ध न होने का मूल कारण पाप है। पाप के द्वारा संसार में मृत्यु आयी (रोमियों 5:12)। और इसी के साथ दुख भी आया (रोमियों 8:20)। सम्पूर्ण सृष्टि उस बात के लिए कराह रही है और प्रतीक्षा कर रही है जिसे परमेश्वर अन्त में करने वाला है (रोमियों 8:22-23)। तो, हम संसार के टूटेपन के विषय में सिखते हैं।
- इसलिए हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति दुख उठाता है। और क्योंकि वे लोग जो यीशु पर भरोसा रखते हैं और उसके पीछे चलते हैं, वे संसार की पापी व्यवस्था के विपरीत हैं, इसलिए प्रायः ख्रीष्टीय सबसे अधिक कष्ट का सामना करते हैं। प्रेरितों के काम 14:22, “हमें बड़े क्लेश उठा कर राज्य में प्रवेश करना है।” भजन 34:19, “धर्मी पर बहुत सी विपत्तियाँ आती तो हैं, परन्तु यहोवा उसको उन सब से छुड़ाता है।” यूहन्ना 15:20, “यदि उन्होंने [यीशु] को सताया, तो तुम्हें भी सताएँगे।” यूहन्ना 16:33, “संसार में तुम्हें क्लेश होगा।” हम सब कराहते हुए, अपनी देह के छुटकारे की प्रतीक्षा कर रहे हैं (देखें रोमियों 8:23)। तो, हम सब दुख उठाएँगे— विशेष रूप से ख्रीष्टीय लोग।
- परमेश्वर सम्प्रभु है, और जिस कार्य को वह सबसे अधिक करना चाहता है, उसे कुछ भी नहीं रोक सकता है । “मैं ही परमेश्वर हूँ, और मेरे तुल्य कोई नहीं… मैं कहता हूँ कि मेरी योजना स्थिर रहेगी और अपनी भली इच्छा पूरी करुँगा” (यशायाह 46:9-10)। वह प्रकृति से शक्तिशाली है। वह आँधी, बाढ़ तथा बिजली से शक्तिशाली है। वह पशुओं से भी शक्तिशाली है: सिंह जैसे बड़े पशु जो आप पर आक्रमण कर सकते हैं और छोटे-छोटे सूक्ष्म कीड़े मकोड़े जिन्हें आप देख भी नहीं सकते हैं जो आपको अस्वस्थ कर सकते हैं और यहाँ तक आपको मार भी सकते हैं। वह हमारे सभी शत्रुओं से अधिक शक्तिशाली है। वह प्रत्येक वस्तु से अधिक शक्तिशाली है। बच्चों को यह सुनने की आवश्यकता है। वे इस बात को समझते हैं। वे इस बात को हमारी तुलना में अधिक शीघ्रता से ग्रहण करते हैं और वे रहस्यों को सह सकते हैं। हाँ, वे सहन कर सकते हैं। अपने बच्चों को कभी भी यह आभास न होनें दें कि दुख इसलिए है क्योंकि परमेश्वर असहाय है।
- सुसमाचार को अति-स्पष्ट रीति से समझाइए: परमेश्वर ने अपने पुत्र को संसार में भेजा है जिससे कि वह हमारे साथ और हमारे लिए दुख उठाए। इसका अर्थ यह है कि यदि हम उस पर भरोसा करते हैं, तो फिर हमारा कोई भी दुख उठाना हमारे पाप के लिए दण्ड नहीं है। ख्रीष्ट ने हमारे पापों के सभी दण्ड को अपने ऊपर ले लिया है। यही परमेश्वर के सम्मुख हमारी स्वीकृति और स्वर्ग के लिए हमारी आशा का आधार है। और वहाँ कोई भी दुख नहीं होगा। इसलिए, एक ख्रीष्टीय के जीवन में आने वाले सभी दुख इसलिए नहीं आते हैं कि परमेश्वर उस ख्रीष्टीय को अपने प्रकोप में दण्डित कर रहा है — बच्चों को यह बात समझने दीजिए! — किन्तु इसके विपरीत एक पिता के रूप में यह परमेश्वर का अनुशासन है जो वह पवित्रता के लिए करता है, जैसा कि इब्रानियों 12:3-11 और 1 पतरस 1:5 में लिखा है।
- इसलिए, हमारे सभी दुखों के मध्य में भी,परमेश्वर भला है। परमेश्वर बुद्धिमान है। परमेश्वर प्रेमी है, यद्यपि यह दुख पीड़ादायक है, किन्तु परमेश्वर के पास हमारे लिए कुछ उद्धेश्य हैं (रोमियों 8:28)। हम कभी भी यह कहते हुए दुख का वर्णन नहीं करते हैं कि परमेश्वर असहाय है या शैतान प्रबल हो गया अथवा इस संसार में दुर्घटनाएँ मात्र ही होती हैं। हम सर्वदा दुख का सामना करते हैं, हम दुख के विषय में यह कहते हुए उसका सामना करते हैं कि भले ही हम अपने दुख के सम्बन्ध में सारे उत्तर नहीं जानते हैं जैसे कि यह विशेष दुख क्यों आया या यह विशेष दुख इसी विशेष समय में क्यों आया अथवा इतनी भीषणता से ही क्यों आया — हम इन विशेष बातों को नहीं समझते हैं — फिर भी, हम उस बात को समझते हैं जो परमेश्वर ने हमें सिखाया है; अर्थात वह सम्प्रभु है, वह भला है, और यह भी कि उसके उद्देश्य हमारे लिए सदैव अनन्त आनन्द के होते हैं।
- और इस व्यापक विश्वदृष्टि का अन्तिम भाग वह आने वाला दिन है जब परमेश्वर सब कुछ को ठीक कर देगा। यद्यपि यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि कोई दुष्ट व्यक्ति इस जीवन में दण्ड से बच गया है, परन्तु फिर भी वह न्याय से नहीं बच पाएगा क्योंकि परमेश्वर अन्त में उसका न्याय करेगा। प्रभु कहता है, “बदला लेना मेरा काम है, बदला मैं दूँगा” (रोमियों 12:19)। और प्रत्येक भला कार्य जिसके विषय में ऐसा प्रतीत होता है कि इसका प्रतिफल नहीं मिला है या आशिष के स्थान पर दुख मिला है तो, “धर्मियों के जी उठने पर तुझे [अवश्य ही] प्रतिफल मिलेगा” (रोमियों 14:14)।
इसलिए, सप्ताह प्रति सप्ताह हम अपने बच्चों को ये बातें सिखाते हैं, इनके विषय में तब बात करते हुए जब हम सवेरे जागते हैं और जब हम गाड़ी में यात्रा कर रहे होते हैं और जब हम भोजन खाने के लिए बैठते हैं, और जब हम रात को सोने जाते हैं। इस विश्वदृष्टि को अपने बच्चों को अच्छे से सिखा दीजिए।
2) हम अपने बच्चों को उपयुक्त दृढ़ता के साथ अनुशासित करते हैं और उनसे आत्म-त्याग की अपेक्षा रखते हैं। “पिताओं, अपने बच्चों को क्रोध न दिलाओ, वरन् प्रभु की शिक्षा और अनुशासन में उनका पालन-पोषण करो”— केवल निर्देश ही नहीं देना है, परन्तु अनुशासित भी करना है (इफिसियों 6:4)। नीतिवचन 13:24, “जो अपने पुत्र को छड़ी नहीं मारता वह उसका बैरी है, परन्तु जो उस से प्रेम करता है वह यत्न से उसे अनुशासित करता है।” इसका एक कारण यह है कि मैं क्यों सोचता हूँ कि हम अपने बच्चों से घृणा करते हैं यदि हम उन्हें उस रीति से अनुशासित नहीं करते हैं—भले ही कुछ देशों में आपको बन्दी बना लिया जाए, या इससे भी बुरा आपके बच्चों को आप से ले लिया जाए—वह यह है कि बच्चों को उनके अनाज्ञाकारी व्यवहार के लिए बिना कोई शारीरिक दण्ड दिए ही उनसे लाड़-प्यार करना उन्हें इस बात के लिए तैयार करता है कि जब उनके जीवन में परमेश्वर का अनुशासन शारीरिक रीति से आएगा तो वे उस अनुशासन को नहीं पहचान पाएँगे। और यह शारीरिक रीति सेआएगा, और यदि हमने उन्हें यह नहीं दिखाया है कि कैसे एक प्रेम करने वाला अभिभावक एक अनाज्ञाकारी बच्चे की प्रेमपूर्वक ताड़ना कर सकता है, तो फिर हम उनको बहुत बड़ी हानि पहुँचा रहे हैं।
सामान्य रीति से, बच्चों को आत्म-त्याग सिखाया जाना चाहिए। अर्थात उन्हें वह सब कुछ नहीं मिलना चाहिए जो वे चाहते हैं। गलातियों 5:22-23 में धैर्य और त्यागपूर्ण प्रेम के समान आत्म-संयम भी आत्मा का एक फल है। और कोई भी इसके बिना एक ख्रीष्टीय नहीं हो सकता है, क्योंकि हमारे पतित स्वभाव को अवश्य ही नकारा जाना चाहिए या “घात किया जाना चाहिए” जैसा कि पौलुस कुलुस्सियों 3:5 में कहता है। जब तक हम जीवित हैं हमें अपनी पापी इच्छाओं को घात करना चाहिए। हमें अपने बच्चों में स्वार्थी इच्छाओं को “न” कहने वाले जीवन पर्यन्त स्वभाव को डालने की आवश्यकता है। ऐसा न कर पाने के कारण ही हज़ारों बच्चों के जीवन नष्ट हो जाते हैं। इसलिए अपने बच्चों के साथ ऐसा न करें। उन्हें आत्म-त्याग सिखाइए।
3) और अब मैं जिस अन्तिम बात को कहूँगा — उन्हें महत्व के अनुसार क्रम में रखना थोड़ा कठिन है, किन्तु सम्भवतः यह सबसे महत्वपूर्ण बात है: हमें अपने बच्चों के समक्ष अपने दुख और कष्ट के मध्य भरोसा रखने और आनन्दित होने का एक उदाहरण बनना चाहिए। वे हमें देख रहे हैं। रोमियों 5:3, “हम अपने क्लेशों में आनन्दित होते हैं, क्योंकि यह जानते हैं कि क्लेश में धैर्य उत्पन्न होता है।” और याकूब 1:2, “हे मेरे भाइयो, जब तुम विभिन्न परीक्षाओं का सामना करते हो तो इसे बड़े आनन्द की बात समझो।” आपके बच्चों के जीवन में स्वयं आपकी निराशाओं और कष्टों के मध्य में आपके भरोसे और आनन्द के उदाहरण से अधिक शक्तिशाली कुछ और नहीं होगा।
वास्तव में, मैं कहूँगा कि बच्चों के अभिभावक होने में सबसे बड़ी चुनौती है—कम से कम, जब मैं पलटकर स्वयं के अभिभावकपन में जो मैंने किया उसको देखता हूँ। लगभग 42 कुछ वर्षों से, अभी तक—बच्चों के अभिभावकपन में सबसे बड़ी चुनौती मुख्य रूप से उन सभी बातों को स्मरण रखना नहीं है जिन्हें ख्रीष्टीय प्रश्नोत्तरी में सिखाया जाना चाहिए, परन्तु मुख्य रूप से इस प्रकार के माता-पिता होना है, जो जीवन के उन सभी उतार-चढ़ाव में अनुग्रह, नम्रता, भरोसा एवं आनन्द में बढ़ रहे हैं। हमारे बच्चों के जीवन में उन्हें ख्रीष्टीयों के रूप में दुख उठाने हेतु सहायता करने में कुछ ही बातों का इससे अधिक प्रभाव होगा।