परमेश्वर सृष्टि के कार्यों में आनन्दित होता है क्योंकि वे हमें अपने से परे स्वयं परमेश्वर की ओर इंगित करते हैं।
परमेश्वर चाहता है कि हम उसकी सृष्टि के कार्य से स्तब्ध और विस्मित हो जाएँ। किन्तु केवल उस अनुभव के लिए ही नहीं। वह चाहता है कि हम उसकी सृष्टि को देखें और कहें: यदि केवल उसकी उंगलियों का कार्य (केवल उसकी उंगलियाँ! भजन 8:3) बुद्धि और सामर्थ्य और भव्यता और महिमा और सुंदरता से इतना भरा हुआ है, तो यह परमेश्वर स्वयं में कैसा होगा!
ये तो केवल उसकी महिमा के पिछले भाग हैं, मानो कि जैसे किसी दर्पण के माध्यम से अन्धेरे में देखा गया हो। स्वयं सृष्टिकर्ता की महिमा देखना कितना अद्भुत होगा! केवल उसके कार्य नहीं! एक अरब आकाशगंगाएँ मानव प्राण को सन्तुष्ट नहीं करेंगी। परमेश्वर और परमेश्वर ही मानव प्राण का लक्ष्य है।
जोनाथन एडवर्ड्स ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया:
परमेश्वर का आनन्द लेना ही वह एकमात्र सुख है जिससे हमारे प्राण तृप्त हो सकते हैं। पूरी रीति से परमेश्वर का आनन्द लेने के लिए स्वर्ग जाना, यहाँ के सबसे सुखद आवास से असीम रूप से उत्तम है . . . [ये] केवल प्रतिछाया हैं; किन्तु परमेश्वर सार है। ये बिखरी हुई किरणें हैं; परन्तु परमेश्वर सूर्य है। ये तो धाराएँ हैं; परन्तु परमेश्वर सागर है।
यही कारण है कि भजन 104:31-34 स्वयं परमेश्वर पर ध्यान देने के साथ समाप्त होता है। “जब तक मेरा अस्तित्व है, मैं अपने परमेश्वर का भजन करता रहूँगा। . . . मैं तो यहोवा में ही मग्न रहूँगा।” अन्त में समुद्र या पहाड़ या घाटी या जल मकड़ियाँ या बादल या बड़ी आकाशगंगाएँ हमारे हृदयों को विस्मय से नहीं भरेंगी और हमारे मुँह को अनन्त स्तुति से नहीं भरेंगी। ऐसा स्वयं परमेश्वर ही करेगा।