हे मेरे प्राण, यहोवा को धन्य कह, और जो कुछ मुझ में है, उसके पवित्र नाम को धन्य कहे! (भजन 103:1)
इस भजन का आरम्भ और समापन भजनकार द्वारा अपने ही प्राण को यह प्रचार करने से होता है कि वह यहोवा को धन्य कहे— “हे मेरे प्राण, यहोवा को धन्य कह” — और स्वर्गदूतों एवं स्वर्ग की सेनाओं तथा यहोवा के कार्यों को भी यह प्रचार करते हुए कि उन्हें भी ऐसा ही करना चाहिए।
हे यहोवा के दूतों, तुम जो बड़े पराक्रमी हो, और उसके वचन की पुकार को सुनते हो, तुम जो उसके वचन का पालन करते हो, उसको धन्य कहो! हे यहोवा की सारी सेनाओं, हे उसके सेवकों, तुम जो उसकी इच्छा पूरी करते हो, उसको धन्य कहो! हे यहोवा की सारी सृष्टि, उसके राज्य के सब स्थानों में उसको धन्य कह। हे मेरे प्राण, तू यहोवा को धन्य कह! (भजन 103:20-22)
भजन अधिकाई से यहोवा को धन्य कहने पर क्रेन्द्रित है। यहोवा को धन्य कहने का क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है उसकी महानता और भलाई के विषय में अच्छी रीति से बात करना— और वास्तव में आपके प्राण की गहराई से इसे करना।
इस भजन के प्रथम और अन्तिम पदों में दाऊद क्या कर रहा है, जब वह यह कहता है, “हे मेरे प्राण, यहोवा को धन्य कह,” वह कह रहा है कि परमेश्वर की भलाई और महानता के विषय में सच्चाई से बोलना अवश्य ही प्राण से आना चाहिए।
बिना प्राण के केवल मुँह से परमेश्वर को धन्य कहना पाखण्ड होगा। यीशु ने कहा, “ये लोग होंठो से तो मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है” (मत्ती 15:8)। दाऊद उस जोखिम को जानता है, और वह स्वयं को प्रचार करता है। वह अपने प्राण को बता रहा है कि ऐसा न होने दे।
“आओ, हे प्राण, परमेश्वर की महानता और भलाई को देखो। मेरे मुँह के साथ मिलो, और आओ हम सम्पूर्ण अस्तित्व से प्रभु को धन्य कहते हैं। हे प्राण, हम पाखण्डी नहीं बनेंगे!”