परन्तु उन्होंने अपने पिता की बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि यहोवा उनको मार डालना चाहता था। (1 शमूएल 2:25)
जब एली याजक अपने पुत्रों को उनके पापों के प्रति चिताता था तो उसके पुत्र अपने पिता की बात नहीं मानते थे। इस स्थल में हमारे जीवनों के लिए तीन निहितार्थ हैं।
पहला: यह सम्भव है कि इतने लम्बे समय तक और इतनी भयंकर रीति से पाप किया जाए कि परमेश्वर पश्चात्ताप का मन ही प्रदान न करे।
इसलिए पौलुस कहता है कि हमारे समझाने और सिखाने पर “क्या जाने परमेश्वर उन्हें पश्चात्ताप का मन दे” — न कि, “परमेश्वर अवश्य ही उन्हें पश्चात्ताप का मन देगा” (2 तीमुथियुस 2:25)। पाप भरे जीवन में ऐसा समय आता है जब “अति विलम्ब” हो चुका होता है। जैसे कि इब्रानियों 12:7 में एसाव के लिए कहा गया है, “आँसू बहा-बहाकर ढूँढ़ने पर भी उसे पश्चात्ताप करने का अवसर न मिला।” वह त्याग दिया गया था; वह पश्चात्ताप नहीं कर सका।
इसका अर्थ यह नहीं है कि जिन्होंने जीवन भर तो पाप किया है परन्तु अन्त मे सच्चा पश्चात्ताप करते हैं उन्हे भी उद्धार नहीं मिल सकता है। उनका उद्धार हो सकता है और अवश्य ही होगा! परमेश्वर अत्यधिक दयालु है। क्रूस पर चढ़े हुए डाकू को स्मरण कीजिए। यीशु ने उस से कहा “आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा” (लूका 23:43)।
दूसरा निहितार्थ: कभी कभी परमेश्वर पाप करते रहने वाले व्यक्ति को वह कार्य करने की अनुमित नहीं देता है जो उचित है।
“किन्तु उन्होंने अपने पिता की बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि यहोवा उनको मार डालना चाहता था।” अपने पिता की बात सुनना उनके लिए सही कार्य था। किन्तु उन्होंने नहीं सुना। क्यों? “क्योंकि यहोवा उनको मार डालना चाहता था।”
वे इसलिए अपने पिता की बात नहीं सुन रहे थे क्योंकि परमेश्वर के पास उनके लिए अन्य उद्देश्य थे, और उसने उन्हें पाप करने तथा मरने के लिए छोड़ दिया था। यह दिखाता है कि ऐसे समय भी आते हैं जब परमेश्वर की आज्ञप्तिपरक (decretive will) इच्छा परमेश्वर की आज्ञा की प्रकट इच्छा से भिन्न होती है।
तीसरा निहितार्थ: कभी-कभी ऐसा होता है कि परमेश्वर की प्रकट इच्छा के पूरे होने के लिए की गई हमारी प्रार्थनाओं का भी उत्तर नहीं मिलता है, क्योंकि परमेश्वर ने अपने पवित्र तथा बुद्धिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भिन्न आज्ञप्ति दी होती है।
मैं सोचता हूँ कि एली ने अपने पुत्रों के परिवर्तन के लिए प्रार्थना की होगी। और उसे उसी प्रकार से प्रार्थना करनी भी चाहिए थी। परन्तु परमेश्वर ने आज्ञप्ति दी थी कि होप्नी और पीनहास आज्ञा न मानें, परन्तु घात किए जाएँ।
जब इस प्रकार से कुछ होता है (जिसके विषय में हम साधरणत: समय से पहले नहीं जानते हैं), जबकि हम परिवर्तन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर रहे होते हैं तो परमेश्वर का उत्तर तब यह नहीं है कि: “मैं तुमसे प्रेम नहीं करता हूँ।” परमेश्वर का उत्तर यह होता है कि: “इस पाप पर विजय न पाने में तथा पश्चात्ताप का मन न देने में, मेरे बुद्धिपूर्ण तथा पवित्र उद्देश्य हैं। अभी तुम इन उद्देश्यों को नहीं देखते हो। मुझ पर भरोसा रखो। मैं जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।”