ध्यान दें: परमेश्वर से प्रेम करना मात्र उसकी आज्ञाओं का पालन करना ही नहीं है। यह तो परमेश्वर के लिए उस प्रकार का हृदय रखना है जिस के लिए आज्ञाओंं का पालन करना बोझ नहीं है। यही बात तो यूहन्ना कहता है। किन्तु इसके बाद वह प्रेम के स्थान पर इस सत्य को नये जन्म और विश्वास की शब्दावली में प्रस्तुत करता है। वह बिना किसी विराम के कहता है “क्योंकि” — अर्थात्, इस कारण से परमेश्वर की आज्ञाएँ बोझिल नहीं हैं: क्योंकि जो कोई परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है वह संसार पर जय प्राप्त करता है। अतः, नया जन्म वह है जो बिना बोझिल हुए परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सांसारिक बाधाओं पर जय प्राप्त करता है।
और अन्ततः वह इस बात को जोड़ता है, “और वह विजय जिसने संसार पर जय प्राप्त की है वह तो यह है–अर्थात् हमारा विश्वास।” अतः, नया जन्म बिना बोझिल हुए-आज्ञा-पालन करने हेतु सांसारिक बाधाओं पर जय प्राप्त करता है, क्योंकि नया जन्म विश्वास को उत्पन्न करता है। इसलिए, नये जन्म का आश्चर्यकर्म विश्वास को सृजता है, वह तो उस परमेश्वर को अपनाता है जो हमारे लिए ख्रीष्ट में सर्वोच्च रीति से सन्तुष्टिदायक है, जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होने को संसार के प्रलोभनों की तुलना में और अधिक मनभावना बनाता है। और परमेश्वर से प्रेम करने का यही अर्थ है।
अट्ठारहवीं शताब्दी के पास्टर और ईश्वरविज्ञानी जोनाथन एडवर्ड्स ने इस स्थल का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष दिया, “बचाने वाले विश्वास में… प्रेम… अन्तर्निहित है। परमेश्वर के प्रति हमारा प्रेम हमें इस बात के लिए सक्षम करता है कि हम उन कठिनाइयों पर जय प्राप्त करें जो हमें परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने से रोकती हैं—जो यह दिखाता है कि बचाने वाले विश्वास, जीवन और शक्ति में प्रेम ही मुख्य बात है जिसके द्वारा यह अनेक बड़े प्रभावों को उत्पन्न करता है।”
मेरे विचार से एडवर्ड्स ने ठीक कहा था और बाइबल में अनेक ऐसे स्थल हैं जो उन बातों का समर्थन करते हैं जो उन्होंने कही थीं।
इसी बात को दूसरी रीति से कहें तो, ख्रीष्ट में विश्वास का अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ परमेश्वर हमारे लिए है, हम केवल उन्हीं बातों के लिए सहमति जताएँ, किन्तु वह जो कुछ भी ख्रीष्ट में हमारे लिए है, हमें उसे भी अपनाना है। “पवित्रशास्त्र जिस भी रीति से ख्रीष्ट को असहाय पापियों के समक्ष प्रस्तुत करता है उसे सच्चा विश्वास अपनाता है — यह एडवर्ड्स का एक अन्य उद्धरण है। यह “अपनाना” ख्रीष्ट के प्रति एक प्रकार का प्रेम है—उस प्रकार का प्रेम जो सब बातों से बढ़कर उसको संजोता है।
इसलिए, 1 यूहन्ना 5:3 के मध्य कोई विरोधाभास नहीं है, जो एक ओर यह कहता है कि परमेश्वर के प्रति हमारा प्रेम इस बात के लिए हमें सक्षम करता है कि हम उसकी आज्ञाओं का पालन करें, और दूसरी ओर पद 4, कहता है कि हमारा विश्वास संसार की उन बाधाओं पर जय प्राप्त करता है जो हमें आज्ञाओं का पालन करने से रोकती हैं। परमेश्वर तथा ख्रीष्ट के प्रति प्रेम तो विश्वास में निहित है।
यूहन्ना तब उस विश्वास को जो आज्ञापालन करता है इस रीति से परिभाषित करता है कि “जो यह विश्वास करता है कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र है” (1 यूहन्ना 5:5)। यह विश्वास वर्तमान-के-यीशु को उस महिमामय ईश्वरीय व्यक्ति के रूप में “अपनाता” है जो वह है: परमेश्वर का पुत्र। यह केवल इस सत्य को स्वीकार करना नहीं है कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है, क्योंकि दुष्टात्माएँ भी इस बात को स्वीकारती हैं। “और देखो उन्होंंने चिल्लाकर कहा, ‘हे परमेश्वर के पुत्र, हमारा तुझ से क्या काम? क्या तू यहाँ हमें समय से पहिले यातना देने आया है?’” (मत्ती 8:29)। यह विश्वास करना कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है, इसका अर्थ है उस सत्य के महत्व को “अपनाना” — वास्तविकता के उस मूल्य को अपनाना। इसका अर्थ है कि परमेश्वर के पुत्र के रूप में ख्रीष्ट से सन्तुष्ट होना और वह सब जो उसमें परमेश्वर हमारे लिए है।
“परमेश्वर के पुत्र” का अर्थ है कि यीशु अपने पिता के साथ विश्व में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है। इसलिए, उसने जो कुछ सिखाया है वह सच है, और उसने जो भी प्रतिज्ञा की थी वह दृढ़ रहेगी, और उसकी सम्पूर्ण आत्म-सन्तुष्टिदायक महानता कभी नहीं बदलेगी।
इसलिए यह विश्वास करने में कि वह परमेश्वर का पुत्र है, इन सब बातों पर भरोसा करना और इनसे सन्तुष्ट होना सम्मिलित है।