संसार में पुत्र के आने के साथ ही अन्तिम दिनों का आरम्भ हो जाता है। “इन अन्तिम दिनों में हमसे अपने पुत्र के द्वारा बातें की हैं।” ख्रीष्ट के आने के पश्चात् हम लोग अन्तिम दिनों में जी रहे हैं — अर्थात् इतिहास के अन्तिम दिन, जैसा कि हम जानते हैं कि परमेश्वर के राज्य की अन्तिम और पूर्ण स्थापना से पहले।
इब्रानियों के लेखक का बिन्दु यह है: जिस वचन को परमेश्वर ने अपने पुत्र के द्वारा बोला था, वह निर्णायक वचन है। पुत्र की स्वयं की योजना के अन्तर्गत, वह वचन युगों के लिए नये नियम के लेखों में व्यक्त किया गया है। उसने इसके लिए स्पष्ट प्रावधान किया है, कहीं ऐसा न हो कि प्रत्येक पीढ़ी परमेश्वर के निर्णायक वचन का अनुमान लगाने के लिए छोड़ दी जाए। इस युग में इस वचन के पश्चात् कोई और महान वचन या प्रतिस्थापक वचन नहीं आएगा। यह परमेश्वर का वचन — यीशु का व्यक्ति, यीशु की शिक्षा, और यीशु का कार्य है,जो प्रेरितों की लेखनी में उत्प्रेरणा से व्यक्त किया गया है जिसे हम नया नियम कहते हैं।
जब मैं कुड़कुड़ाता हूँ कि मैं परमेश्वर के वचन को नहीं सुनता हूँ, जब मुझ में परमेश्वर की वाणी सुनने की इच्छा होती है, और मैं हताश हो जाता हूँ कि वह इस रीति से बात नहीं करता है जिसकी मैं लालसा करता हूँ, तो मैं वास्तव में क्या कह रहा हूँ? क्या मैं वास्तव में कह रहा हूँ कि मैं इस अन्तिम निर्णायक वचन को पूर्ण रीति से जान गया हूँ जो नये नियम में सम्पूर्णता से अचूकता से प्रकट हुआ है? क्या मैं वास्तव में इस वचन को पूर्ण रीति से जान गया हूँ? क्या यह मेरा इतना अधिक भाग बन गया है कि उसने मेरे अस्तित्व को आकार दिया है और मुझे जीवन और मार्गदर्शन दिया है?
अथवा क्या मैंने इसको गम्भीरता से नहीं लिया है — अर्थात् इसको समाचार पत्र के जैसे हड़बड़ी में पढ़ा है, इंटरनेट पर डाले गए चित्रों के समान शीघ्रता से देखा है, स्वाद परीक्षक के जैसे थोड़ा सा चखा है — और फिर निर्णय लिया कि मुझे कुछ भिन्न चाहिए था, कुछ अधिक? मुझे यही डर है कि जितना मैं स्वीकार करना चाहता हूँ उससे कहीं अधिक मैं दोषी हूँ।
परमेश्वर हमें बुला रहा है कि हम उसके अन्तिम, निर्णायक, कभी न समाप्त होने वाले वचन पर तब तक ध्यान लगाएँ और अध्ययन करें और कण्ठस्थ करें और मनन करें और इसे सोखते रहें जब तक कि यह हमारे अस्तित्व के केन्द्र तक हमें संतृप्त न कर दे।