क्योंकि, यद्यपि वे परमेश्वर को जानते हैं फिर भी उन्होंने उसे न तो परमेश्वर के उपयुक्त सम्मान और न ही धन्यवाद दिया; वरन् वे अनर्थ कल्पानाएँ करने लगे, और उनका निर्बुद्ध मन अन्धकारमय हो गया। (रोमियों 1:21)
जब मानव हृदय में परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता उमड़ती है, तो हमारी आशीषों के समृद्ध स्रोत के रूप में उसकी बड़ाई होती है। उसे प्रदान करने वाले और उपकारक के रूप में स्वीकार किया गया है और इसलिए महिमामय भी माना जाता है।
परन्तु जब हमारे प्रति की गई परमेश्वर की महान् भलाई के लिए हमारे हृदय में कृतज्ञता नहीं उमड़ती है, तो सम्भवतः इसका अर्थ यह है कि हम उसकी प्रशंसा नहीं करना चाहते हैं; हम उसको अपने उपकारक के रूप में सम्मान नहीं देना चाहते हैं।
और इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि मनुष्य स्वभाव से परमेश्वर को सम्मान के साथ धन्यवाद नहीं देना चाहता है या उसे अपने उपकारक के रूप में महिमान्वित नहीं करना चाहता है। इसका कारण यह है कि यह हमारी स्वयं की महिमा को घटाता है, और सभी लोग स्वभाव से ही परमेश्वर की महिमा से अधिक अपनी महिमा को प्रिय जानते हैं।
सभी अकृतज्ञता की जड़ में स्वयं की महानता से प्रेम पाया जाता है। क्योंकि वास्तविक कृतज्ञता इस बात को स्वीकार करती है कि हम एक अनर्जित विरासत के लाभार्थी हैं। हम ऐसे अपंग जन के समान हैं जो यीशु ख्रीष्ट के क्रूस रूपी बैसाखी का सहारा लिए हुए हैं। हम लकवाग्रस्त हैं जो परमेश्वर की दया के द्वारा प्राप्त श्वास में मिनट दर मिनट जी रहे हैं। हम तो स्वर्ग के पालने में सोए हुए बच्चे की नाईं हैं।
स्वाभाविक व्यक्ति, बचाने वाले अनुग्रह के बिना स्वयं के विषय में इस प्रकार की छवियों पर विचार करने से घृणा करता है: अयोग्य लाभार्थी, अपंग, लकवाग्रस्त, बालक। ये शब्द परमेश्वर को सम्पूर्ण महिमा देने के द्वारा व्यक्ति की महिमा को लूट लेते हैं।
इसलिए, जब तक एक व्यक्ति स्वयं की महिमा से प्रेम करता है, और अपनी आत्मनिर्भरता को महत्व देता है, और स्वयं को पाप ग्रसित और असहाय समझने से घृणा करता है, वह कभी भी सच्चे परमेश्वर के प्रति वास्तविक कृतज्ञता का अनुभव नहीं करेगा और इसलिए वह कभी भी उस रीति से परमेश्वर की महिमा नहीं करेगा जैसा कि उसे करना चाहिए, परन्तु वह केवल अपनी ही महिमा करेगा।
यीशु ने कहा, “भले चंगों को वैद्य की आवश्यकता नहीं, परन्तु बीमारों को है। मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को बुलाने आया हूँ” (मरकुस 2:17)
यीशु उन लोगों की सेवा करने नहीं आया था जो इस बात पर बल देते हैं कि वे ठीक हैं। वह तो एक बड़ी बात की माँग करता है: कि हम स्वीकार करें कि हम महान् नहीं हैं। यह अभिमानियों के लिए तो बुरा समाचार है, परन्तु उन लोगों के लिए मधुर सन्देश है जिन्होंने अपनी आत्मनिर्भरता का मोह छोड़ दिया है तथा परमेश्वर की खोज कर रहे हैं।